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________________ આગમત उत्तर-वंदित्तु० की टीका चूर्णि वगैरह में वंदित्तु० की ५० ही गाथा मानी है, और सबही जगह पर 'सम्मदिट्ठी देवा' ऐसा पद माना हैं, जो लोग 'समत्तस्स य मुद्धिं ऐसा पद वहां पर कहते है, वह उचित नहीं है. ___ क्योंकि शास्त्रोंमें अर्थ एक होने पर भी शब्द फिराने वाले को आशातना करनेवाला माना है, तो फिर अपने कदाग्रहका पोषण करने के लिये मरणदशा में उच्चारण करने का पद यहां पर दिया उसका तो कहना ही क्या ? १४ प्रश्न-सूत्रों में श्रावकों को 'असहिज्जा देवासुर' कहकर किसी की भी सहायता नहीं लेनी ऐसा कहा है, वो फिर वह याचना करना सूत्र से खिलाफ क्यों नहीं गिनी जाती ? उत्तर-महानुभाव ! आपको उस सूत्र का भावार्थ बराबर ज्ञात नहीं, देखिए असहिज्ज का अर्थ श्रीशीलांकाचार्यजी तथा श्री अभयदेवसूरिजीने क्रमसे- श्रीसूगडांगजीमें___ 'असहायोऽपि देवासुरादिभिर्देवगणैरनतिक्रमणीयः अनतिलंघनीयो धर्मादप्रच्यावनीय इतियावत् , तदियता विशेषणकलापेन तस्य सम्यग्ज्ञानित्वमावेदितं भवति' (सू०४०८) उवबाइजीमें 'असहेजत्ति अविद्यमानसाहाय्यः कुतीर्थिकप्रेरितः सन् 'सम्यक्त्वविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षते इति भावः अत एवाह-देवासुर० (औप०) इसका भावार्थ यह है कि-कोई देवअसुरादि श्रावकोंको श्रीजैनशासनकी श्रद्धासे चलायमान न कर सके या कोई भी अन्यमतावलंबी प्रश्नोत्तर करने को आवे तो उन श्रावकों को किसी का सहारा नहीं लेना पडे. ___ अर्थात् इस पदसें उन्हों के सम्यक्त्व और ज्ञान की प्रबलता दिखाई है, उसमें धर्ममें सम्यग्दृष्टियों की सहायताके निषेत्रकी गंध भी नहीं है.
SR No.540002
Book TitleAgam Jyot 1967 Varsh 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgmoddharak Jain Granthmala
PublisherAgmoddharak Jain Granthmala
Publication Year1967
Total Pages316
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Agam Jyot, & India
File Size20 MB
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