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पुस्त। 3
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यह है कि गुणवान् महात्मा की याने सत्पुरुषों के सन्मान की ओर हरदम झुकता रहे । कोई भी आदमी गुण और गुणवान का सन्मान किये बिना कभी गुणवान नहीं बन सकता है, और इसी से ही शास्त्रकारों ने संतकी स्तुति की बडी ही महिमा दिखाई है। ____ यह विचार औन्नत्य का दूसरा भेद है ।
३ जिस तरह अपराध की माफी लेने देने के साथ सर्व जीवों के हित का सोचना और सत्पुरुषों की सेवा के लिये हरदम भावना-युक्त होना कहा है उसी तरह शारीरिक या आत्मिक तकलीफ से हैरान होनेवाले जो कोई भी जन्तु हों उन सबकी तकलीफ मिटाने का विचार होवे, यह विचार औनत्य का तीसरा भेद है।
ख्याल करने की जरूरत है कि जिस जन्तु ने पाप बांधा है वह तकलीफ पाता है। लेकिन तकलीफ पानेवाले प्राणी की तकलीफ दूर करनेवाले को बडा ही लाभ है । जैन शास्र के हिसाब से पाप का फल अकेली तकलीफ भुगतने से ही भुगता जाता है ऐसा नहीं है; किन्तु जैसे केले के अजीर्ण में इलाइची या आम के अजीर्ण में सुंठ देने से विकार दूर हो जाता है, लेकिन वह केले और आम की वस्तु उड नहीं जाती है, उसी तरह बंधा हुआ पाप का रस टूट जाय और कम हो जाय इससे, उस दुःखी प्राणि का दुःख कम हो जाता है । दवाई देने से जैसे बीमार की तकलीफ मिट जाता है, उसी तरह दयालु महाशयों के प्रयत्न से दुःखी प्राणियोंका दुःख भी दूर हो सकता है। इससे दुःखी प्राणियों के दुःख को दूर करने का जो विचार होवे यह विचार-औन्नत्य का तीसरा भेद है ।
४ जगत में कितनेक प्राणी ऐसे होते हैं कि जिनके हित के लिए प्रयत्न करें, दु,ख दूर करने के लिये कटिबद्ध होवें, तब भी उन प्राणियों के कर्म का (पाप का ) उदय विचित्र होने से या चित्तवृत्ति अधम होने उनका हित न होवे । इतना ही नहीं लेकिन वह अपने आप अहित में ही