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આગમત हों, स्वजन हों या परजन हों, मित्र हों या शत्रु हों, हिंसक हो या दयालु हों, चाहे जैसे हों; लेकिन किसी जन्तु पर वैर विरोध की भावना न होवे याने ' अपराध की माफी लेनी और देनी' इस सिद्धान्त को आगे रखके 'मैत्र्यस्तु तेषु सर्वेषु ' याने सभी जीवों को फायदा पहुंचानेवाला होना यह मेरा असली कर्तव्य है, ऐसा विचार कर इस मैत्रीभाव के सिद्धांत से ही जैन शास्त्र धर्म को फरमाता है ।
इसी कारण जैनधर्म के सत्ताकाल में किसी जैन राजा या समाज ने किसी अन्य धर्म के मन्दिर, धर्मस्थान या गुरुस्थान को हडप करने के लिए न तो उद्यम किया है और न हडप किया है। ____ यद्यपि इस मैत्री भावना को संसार की मौज में मचे हुवे आदमी निर्बलता और कायरता के नाम से पुकारते हों, लेकिन सज्जनगण तो स्वयं ही समझ सकते हैं कि जगत में ऐसा एक भी सद्गुण नहीं है कि जिसको दुर्जनों ने दूषित न किया हो; इस बात को सोचके जनसमुदाय को खोटी बहकावट से कोई भी सज्जनगण माफी देने के साथ के इस मैत्री गुण को कभी दूर न करेंगे।
यह मैत्री भावनावाला ही धर्म विश्वधर्म हो सकता है। जिस धर्म में वैर और विरोधरूप अग्नि जाज्वल्यमान करने का आदेश हो वह धर्म कभी विश्वधर्म होनेके लिये लायक नही बन सक्ता।
२ जिस तरह सर्व प्राणिओं के हित की चाहना करने की धर्मनिष्ठ प्राणि के लिये जरूरत है, उसी तरह (खुदसे) ज्यादा गुणवान आदमी की ओर बडा सत्कार सन्मान करने की इच्छा प्रदीप्त होना ही चाहिये । जो आदमी गुणवान को पहिचानता नहीं है, और गुणवान का आदरसत्कार सन्मान करने के लिये हरदम अभिरूचिवाला नहीं रहेता, वह आदमी कभी धर्मनिष्ठ नहीं हो सकता । अनादि काल से अज्ञान से भरे हुए आत्मा को नये नये गुणों की प्राप्ति करने का एक ही रास्ता है, वह