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पुस्त। 3
जिस आदमी को उन्नत विचार का ख्याल होगा वही उन्नत विचार का परिशीलन कर सकेगा। इससे धर्म का असली स्वरूप जो विचार का औनत्य है उस पर गौर करने की जरूरत है ।
विचार औनत्य के भेदः-आदमी को धर्म में प्रवृत्त होने के साथ विचार का औन्नत्य आवश्यक है यह बात सभी दर्शनवाले को मंजूर करना ही होगा किसी दर्शनवाले ने यह नहीं कहा है कि बिचारकी अधमता के साथ धर्म के अनुष्ठान धर्मरूप में गिने जाय । चाहे तो किसी को दान दें, सद्वर्तन रक्खें, अनेक तरह की तपस्या करके कष्ट उठावें, या संसार की माया से दूर होने का चित्त करें । लेकिन जब तक विचार का औन्नत्य न हो तब तक उन दानादिक को कोई भी दर्शनवाला धर्म नहीं मान सकता है। ___यह बात भी ख्याल करने के योग्य है कि जैसे दानादिक की प्रवृत्ति करने पर भी विचार का औनत्य नहीं होवे तब सच्चा धर्म नहीं हो सकता है, उसी तरह से विचार का औनत्य होने पर अवश्य दानादिक की प्रवृत्ति न भी हों, तब भी विचार औनत्य को धारण करनेवाला अवश्य ही धर्मवाला होता है । यदि ऐसा नहीं मानने में आवे तो एक भी दफे आदमी निर्धन हो गया तो उस जन्म में या अन्य जन्म में उसको दानादि धर्म होने का सम्भव ही नहीं है । ऐसा मानने से नतीजा यह आ गया कि निर्धन को दानादि नहीं होने से (सर्वथा ) स्वतः धर्म नहीं होगा, और धनवान के धन का दुरुपयोग और अनुपयोग ज्यादा होने से धर्म का सम्भव बहुत कम होगा। इससे आहिस्ते आहिस्ते धर्म का अभाव ही हो जायगा ।
इन बातों का विचार करने से सज्जनगण सहज ही समझ सकेंगे कि धर्म की असली जड विचार का औचत्य ही है । इस विचार औनत्य को चार भाग में अपन विभक्त कर सकेंगे:
१ जगत् भरके सब जन्तु चाहें तो स्थावर हो चाहे तो चल हों, चाहे तो समझदार हो, चाहे तो बिन समझदार हो, स्वदेशी हों, या विदेशी