________________
९८
આગમળેત यहां तो स्वर्ग और मोक्ष ये दोनों पदार्थ अनुमान और शास्त्र से सिद्ध हैं, इससे इधर किसी तरह से वाच्यार्थ का बाध नहीं है। ऐसा यथास्थित स्वर्ग और मोक्ष का कारण धर्म ही हो सकता है। ..
सिवाय धर्म के यदि स्वर्ग और मोक्ष हो जाता हो तो इस जगत में वनस्पति आदि एकेन्द्रिय वगैरह जीवों का अधभ जाति में ठहरना और भटकना होता ही नहीं । जैसे अल्प ही संख्या के आदमी पुण्य का कार्य करनेवाले
और पुण्य की कारणा रखनेवाले होते हैं, वैसे ही जगत में धन, धान्य, कुटुम्ब, शरीर आदि सब तरह का आनन्दपानेवाले लोक भी अल्प ही होते हैं। इसी नियम से समझ सकते हैं कि धर्म और पुण्यका फल ही समृद्धि ओर आनन्द है। और मनुष्य-जन्म में जो कुछ ज्यादा धर्म और पुण्य किया जाय उसके फलरूप आनन्द और समृद्धि भुगतने का स्थान स्वर्ग जरूर ही हेतुवाले को मानना ही होगा । पर्यन्त में जैसे शान्त आदमी प्रसन्नता से दुनिया के बाह्य पदार्थ का संयोग नहीं होने पर भी असीम आनन्द को भुगतता है उसी तरह से सर्व अदृष्ट या कर्म से रहित हुआ स्व स्वरूप में अवस्थित हुआ आत्मा भी अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करे उसमें कुछ भी ताजुबी नहीं है । और वैसी दशा को ही शास्त्रकारों ने मोक्ष मनाया है । इससे मोक्ष का असम्भव मानना शास्त्रानुसारियों और युक्ति के अनुसारियों के लिए कभी लाजिम नहीं है। धर्म का स्वरूप समझने में परीक्षा की जरुर
उपर दिखाया हुआ धर्म स्वर्ग और मोक्ष का कारण है यह बात सभी आस्तिक लोक मंजूर करते हैं। लेकिन धर्म किसको कहना इसमें ही बडा विवाद है।
कितनेक भद्रिक लोक तो धर्म का अलग अलग रास्ता सुनके ही धर्म के उन भेदों के नाम से ही धर्म से अलग हो जाते हैं। लेकिन उन लोगों को सोचना चाहिए कि रजत, सुवर्ण, हीरा, मणि, मोती, पन्ना, वगैरह