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આગમત
अपन देख सकते हैं कि नगर के रास्ते पर चलनेवाला इन्सान उस नगर का सच्चा स्वरूप भी नहीं पहिचानता हो या उलटा ही पहिचानता हों; तब भी वह सच्चे नगर को पाता ही है। इसी तरह से मोक्ष का जो रास्ता है, उसपर चलनेवाला आदमी मोक्ष को पूरी तौर से पहिचाने या नहीं भी पहिचाने तब भी वह अवश्य मोक्ष को पाता है । इसी बात को इधर भी ख्याल रख के मोक्ष के स्वरूप में जो मतमतांतर हैं उनका कुछ भी विवेचन करने में नहीं आयगा।
क्या स्वर्ग और मोक्ष धर्म का लक्ष्यार्थ नहीं है? – कितनेक साक्षरगण, आस्तिक शास्त्रों में धर्म के फलरूप से फरमाये हुए स्वर्ग को तथा मोक्ष को सिर्फ वाच्यार्थ में ही ले जाते हैं, और सांसारिक इहभविक सुखों की सिद्धि को ही धर्म के लक्ष्यार्थ में लेते हैं; याने हिंसा, झूठ, चोरी, स्त्रीगमन, परिग्रह, गुस्सा, अभिमान, प्रपंच और लोभ को छोड़ने से शास्त्रकारों ने जो स्वर्ग और मोक्ष की प्राति दिखाई है, वह सिर्फ वाच्यार्थ याने शब्दों का ही अर्थ है; ऐसा मानते हैं। याने आखिर में न कोई स्वर्ग जैसी चीज हैं, न कोई मोक्ष जैसी चीज है, लेकिन स्वर्ग और मोक्ष शब्द आगे धरने से हिंसादिक का करना रुक जाय तो जगत में बलवान् इन्सान दुर्बल को सताने से दूर रहे, जूठ नहीं बोलके सत्य ही बोलनेवाला होने से प्रामाणिक बन जाय, किसी की कोई भी चीज बिना हक लेने की चाहना न करे, शरीर की रक्षा अच्छी तरह से करे, संग्रहशील न बनके प्राप्त हुई लक्ष्मी का व्यय दुःखी जीवों के उद्वार के लिए करे और क्रोधादिक विकारों के अधीन बन के निर्विचार दशा या दुर्विचार दशा में न जा पडे । यह धर्म शाखकारों का मतलब है । और जिससे इहभक्कि किसी भी आपत्ति को वह न पाये, इतना ही नहीं लेकिन अपने कुटुम्ब और सारे संसार को, वह हिंसादिक को नहीं करनेवाला आदमी, इस तरह से परम सुखमय कर सके इसी लक्ष्यार्थ से शास्त्रकारों ने स्वर्ग मोक्ष के कारण के नाम से धर्म दिखाया है"।