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पुस्त 3
सर्व धर्म का ध्येय-आर्य प्रजा में धर्म के विषय में यद्यपि सेंकडों मतमतांतर हैं, लेकिन हरेक धर्म का रास्ता अलग अलग होने पर भी सर्व धर्म का परम ध्येय अपवर्ग की प्राप्ति ही है । इस वजह से ही सभी धर्मशास्त्रकारों ने यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः याने जिससे स्वर्गादि सुख और मोक्ष हो उसको धर्म माना है । अभ्युदय धर्म का अनन्तर फल है और निःश्रेयस याने मोक्ष की प्राप्ति होना यह सर्व धर्म के हिसाब से परस्पर फल है । नाज के बोने में जैसे तृणादि की प्राप्ति अनन्तर फल है, लेकिन धान्य की प्राप्ति ही परम्पर फल है इसी सबब से मोक्ष ही धर्म का प्रकृष्ट फल हैं। यह बात सर्व आस्तिकों ने मंजूर की हुई है । यद्यपि निःश्रेयस याने मोक्ष मुख्य और ध्येय फल है, लेकिन धर्म से अभ्युदय की प्राप्ति ही पेश्तर होती है । इसीसे निःश्रेयस शब्द पेस्तर नहि धरके अभ्युदय पद रखा गया है। ___मोक्ष का रास्ता-सर्व आस्तिक धर्मशास्त्रकारों ने मोक्ष को ही धर्म का परम फल माना है, तो धर्म एक ऐसी ही वस्तु होनी चाहिए कि जो फौरन या देर से भी मोक्ष को प्राप्त करानेवाली हो । याने धर्म का आचरण करनेवाले को उसी जन्म में मोक्ष की प्राप्ति करादे या भवांतर में ही मोक्ष की प्राप्ति करादे ऐसा ही धर्म मोक्ष का साधन बन सकता है। यद्यपि मोक्ष के स्वरूप में मतमतांतरोकी संख्या कम नहीं है तथापि सञ्चा मोक्ष का रास्ता मिलजानेपर सच्चा मोक्ष आपोआप ही मिल जाता है । इसी वजह से बहुत से आर्य धर्म के शास्त्रकारों ने मोक्षपदार्थ का आदि में स्फोट न करके मोक्ष के कारणभूत धर्म का ही स्थान स्थान पर स्फोट किया है जैसे जैनशास्त्रकार भगवान् उमास्वाति वाचकजी ने तत्त्वार्थसूत्र के आरम्भ में ही सम्बग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः ऐसा सूत्र बना के सच्ची मान्यता, सच्चा बोध और सुन्दर वर्तन रूप मोक्ष का रास्ता ही दिखाया । न तो उस मोक्ष का स्वरूप दिखाया न मोक्ष की समृद्धता ही दिखाई । यावत् मोक्ष की परम ध्येयता भी दिखाई नहीं । जगत् में भी