SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019 अस्तित्व होता है। इस तरह जैन दर्शन और विज्ञान के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है। धर्म के पीछे भी विज्ञान, तर्क, युक्ति, कारण रहे हैं। आज समय आ गया है कि हमें धर्म और विज्ञान का तुलनात्मक अनुसंधान करना चाहिये ताकि धर्म की तरह विज्ञान भी सम्यक्ज्ञान की आराधना बन सके। वैज्ञानिक सिद्धांत अपूर्ण उत्पन्न होते हैं, फिर नष्ट हो जाते हैं एवं परिवर्तित भी हो जाते हैं। समय के अनुकूल वैज्ञानिक सिद्धान्त कैसे परिवर्तित होते हैं। उसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं ___1. पेटोलोमि का सिद्धांत- पृथ्वी स्थिर है एवं सूर्य भ्रमणशील है। बाद में 'कोपरनिकस' का नवीन सिद्धान्त बना- पृथ्वी भ्रमणशील है, सूर्य स्थिर है। वैज्ञानिक लोग पूर्व में पृथ्वी को स्थिर मानते थे, पुनः भ्रमण शील मानने लगे। आज आइन्स्टीन के सापेक्ष सिद्धान्तानुसार रचित पृथ्वी तथा सूर्य स्थिर है और भ्रमणशील है। आइन्स्टीन का सापेक्ष सिद्धांत प्रत्येक आकाश पिण्ड को सापेक्ष से गतिशील मानते हैं। ___2. जिस प्रकार कोलम्बस ने एक भूभाग की खोज करके, उसे भारत कहा, परन्तु वह यथार्थ भारत नहीं था, वह दक्षिण अमेरिका का भूभाग था। बाद में वास्कोडिगामा ने भारत को ढूंढा। क्या जब तक यूरोपियन लोगों ने भारत की शोध नहीं की थी, तब तक भारत का अस्तित्व नहीं था। अवश्य था, क्योंकि भरत क्षेत्र तो अनादि काल से है। अतः जब तक आधुनिक लोग शोध-बोध से जिसको आविष्कार द्वारा नहीं जान पाए, तो क्या सत्य मिट सकता है. कदापि नहीं। 3. सन् 1906 में वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चन्द्र बसु ने वैज्ञानिक पद्धति से वनस्पति को जीव सिद्ध किया, तब से वनस्पति को वैज्ञानिक जीव मानने लगे, परन्तु जैनधर्म में तो अनादिकाल से वनस्पति को स्पष्ट रूप से एकेन्द्रिय जीव कहा है। 4. पहले वैज्ञानिक केवल पृथ्वी पृष्ठ पर ही जीवन मानते थे, परन्तु उड़न तश्तरी के कारण से आज अन्य जगह पर भी जीवन मानने लगे हैं। ग्रह, नक्षत्र, सूर्य, नक्षत्रमण्डल, धूमकेतु, उल्कापिंड आदि के बारे
SR No.538072
Book TitleAnekant 2019 Book 72 Ank 07 to 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2019
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy