________________
S
ANEKANTA - ISSN 0974-8768
३. धर्म द्रव्य- धर्म द्रव्य चेतन और अचेतन पदार्थ के गति में सहायक द्रव्य है। जैसे मछली को तैरने के लिये जल सहायक है। आचार्य कुंदकुंद स्वामी पंचास्तिकाय में धर्म द्रव्य की व्याख्या करते हुए कहते हैंधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोक में व्याप्त अमूर्तिक द्रव्य है, जो जीव के आगमन, गमन, बोलना, मनोयोग, वचनयोग, काययोग, मनोवर्गणाओं और भाषा वर्गणाओं के अति सूक्ष्म पुद्गलों को प्रसारित होने में निमित्त कारण बनता
वैज्ञानिकों ने प्रकाश का वेग ज्ञात करते समय एक अखण्ड सर्व व्याप्त द्रव्य जो कणों को चलाने में सहायक माध्यम है, उसे ईथर के नाम से जाना है। ईथर और धर्म द्रव्य के गुणों में साम्यता देखी गई है, दोनों अमूर्तिक, भार सहित, निष्क्रिय और केवल सहायक है।
४. अधर्म द्रव्य- अधर्म द्रव्य चेतन और अचेतन पदार्थ के स्थिति में सहायक द्रव्य है। जैसे- पथिक के लिये वृक्ष की छाया। अधर्म द्रव्य भी एक अखण्ड लोक में परिव्याप्त, घनत्व रहित, अभौतिक, अपरमाण्विक पदार्थ है। आधुनिक विज्ञान में इसकी तुलना गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से की है। गुरुत्वाकर्षण से वस्तु में स्थिरता आती है।
५. आकाश द्रव्य- जीव और पुद्गल द्रव्यों को अवगाह देना आकाश द्रव्य का कार्य है। जैन दार्शनिकों ने आकाश द्रव्य को एक स्वतंत्र द्रव्य माना है। यह दो प्रकार का है- 1. लोकाकाश 2. अलोकाकाश। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल इन 5 द्रव्यों को केवल लोकाकाश में स्थान है अलोकाकाश में नहीं। वैज्ञानिक आइन्स्टीन का समस्त आकाश अवगाहित सिद्धांत 'विश्व-आकाश' अर्थात् लोकाकाश की मान्यता करता है, जबकि D-Sector का 'विश्व आकाश' जो संपूर्ण रूप से शून्य है, पदार्थ रहित है, वह अलोकाकाश की मान्यता है।
६. कालद्रव्य- जैन दर्शन के अनुसार काल द्रव्य अकायवान है तथा जो पदार्थों के परिणमन में केवल सहायक है। जैन दर्शन में प्रतिपादित काल के अकायत्व का समर्थ आइन्स्टीन ने किया है। जिन घटनाओं के द्वारा हम समय को मापते हैं, उन घटनाक्रम में काल द्रव्य का