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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019 नहीं करना पड़ता है। उन केवली के क्षुधा से उत्पन्न वेदना के प्रतीकार के लिए भुक्ति होती है, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि अनन्त सुख से सम्पन्न और मोहनीय कर्म से रहित के वह वेदना नहीं होती है। उन केवली के असाता कर्म के उदय से उत्पन्न वह वेदना सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रतिसमय ईर्यापथ आस्रव से साता स्वरूप उसी क्षण उदय स्वभाव वाला जो कर्माहार होता है, वह असाता के उदय को पराभूत कर देता है। यदि कहो कि प्राणरक्षा के लिए आहार ग्रहण होता है, तो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट संहनन वाले चरमशरीरी के लिए वह अप्रयोजनीय है। क्षुधा और अतिसार आदि रोग भी मोह का क्षय होने पर समर्थ नहीं हैं। पहले ही असाता आदि वेदकर्म की उदीरणा का अभाव हो जाने से वह वेद भी कार्यकारी नहीं होता
यहाँ किसी के द्वारा जिज्ञासा करने पर कि वह अर्हन्त भगवान् मोक्ष क्यों नहीं गए?3 समाधान करते हैं कि आयुकर्म का हनन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने में हिंसा का प्रसंग आता है। इसलिए शेष कर्मों को समान करके और उनका नाश करके जितनी आयु आत्मा ने प्राप्त की है, उतनी पूर्ण करके वह अर्हत प्रभु विलम्ब से मोक्ष प्राप्त करते हैं।
उक्त संदर्भ में पूज्य आचार्य श्री द्वारा किया गया पद्यानुवाद भी
दृष्टव्य है
प्रथम आयु सम सब कर्मों की. स्थिति को करना होता है। यथाकाल फिर ध्यान योग से, उनको हरना होता है।। प्राणघात से हिंसा होती, आयु कर्म को प्राण कहा।
उसे पूर्ण कर बाद मोक्ष को, करते जिन प्रस्थान अहा।।
इस प्रकार से जैनाचार्यों द्वारा पूर्व में कथित सर्वज्ञ लक्षण को वर्तमान में भव्य जीवों को परिचित कराने हेतु संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने चैतन्य चन्द्रोदय में आगम के आलोक में सर्वज्ञ सिद्धि जैसे कठिन विषय को भी भव्य जीवों के समक्ष सरल एवं सहज भाषा में उपस्थापित किया है। साथ ही पूज्यमुनि श्री प्रणम्यसागर जी महाराज द्वारा की गई चन्द्रिका टीका से मानो यह कृति भव्य जीवों के संतप्त हृदयों को शीतल चांदनी प्रदान कर रही है।