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________________ 76 ANEKANTA - ISSN 0974-8768 कर्मसमूह का अभाव होने से उनमें सर्वज्ञता है। इसी कारण से वह ही विराग हैं। वचनों का निर्दोषपना और सर्वात्म हितपना भी बाधित नहीं है, क्योंकि विराग हैं। सर्वज्ञदेव के मोहनीय कर्म का सर्वथा नाश हो जाने से मोह की पर्याय स्वरूप इच्छा का अभाव हो गया है। अतएव वीतराग भगवान् की वाणी इच्छा से रहित है। जैसाकि पूज्य आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भी कहा है29 अनात्मार्थं विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान् मुरजः किमपेक्षते ॥ अर्थात् सर्वज्ञ देव राग के बिना अपना प्रयोजन न होने पर भी भव्य जीवों को हित का उपदेश देते हैं, क्योंकि वादक के हस्तस्पर्श करता हुआ मृदंग क्या अपेक्षा रखता है? कुछ नहीं । शब्द कहा भी है- एक अनेक अर्थ वाले यह आपके हितकारी वचन सुनकर वक्ता की निर्दोषता को कौन नहीं पहचान सकते हैं? अर्थात् सभी पहचान लेते हैं। जैसे जो व्यक्ति ज्वर से पीड़ित है वह उसके स्वर से जान लिया जाता है। इस प्रकार जो सकलज्ञ है, वह वक्ता है, यह इष्ट है। सयोगी केवली भगवान् के इस प्रसंग में कोई भी दोष की पुष्टि नहीं होती है। जो कोई सर्वज्ञ में क्षुधा तृषा आदि दोष एवं रोग व चिकित्सा मानते हैं, उनका निराकरण पूज्य आचार्यश्री करते हुए कहते हैं"- जो पहले कहा कि शरीर की अवस्था ही इस प्रकार जाननी चाहिए? यह ठीक नहीं है। वह शरीर की स्थिति वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से अनन्तवीर्य का लाभ हो जाने से होती है। उस अनन्तवीर्य के साथ लाभान्तराय कर्म का क्षय भी होता है, जिसके कारण प्रतिक्षण अत्यन्त स्निग्ध, दिव्य, सूक्ष्म, परमौदारिक शरीर से प्रतिबद्ध जितनी आयु शेष बची है, उतनी मात्र स्थिति से युक्त आने वाली शरीर वर्गणाओं के द्वारा उस शरीर में उपचय बना रहता है। यदि कहो कि ज्ञान, ध्यान और संयम की सिद्धि के लिए केवली भगवान् भोजन करते हैं तो वह भी अनुचित है, क्योंकि उन्हें तीन कालवर्ती और तीन लोक के समस्त पदार्थों का समूह प्रत्यक्ष है और यथाख्यातचारित्र विहार शुद्धि संयम से सहित हैं। मन रहित होते हैं इसलिए उन्हें ध्यान के लिए भी प्रयास
SR No.538072
Book TitleAnekant 2019 Book 72 Ank 07 to 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2019
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size2 MB
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