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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
उसके आवरण का सद्भाव मानने में विरोध आता है। इस प्रकार प्रकृत युक्ति के द्वारा सर्वज्ञ में ज्ञान तथा दर्शन दोनों गुणों की युगपत् सत्ता सिद्ध की है। 'ज्ञान ही सुख है' इस प्रकार के एकान्त अभिप्राय करने वाले कहते हैं- जिनके घातिया कर्म क्षय हो चुके हैं, जो अतीन्द्रिय हैं। अनन्त जिनका उत्तम वीर्य है, जो पूर्ण तेजयुक्त हैं, वह आत्मा ज्ञान और सुख में परिणमन करता है। इसलिए निराकुल लक्षण वाला ज्ञान ही सुख है यह सिद्ध होता
इस एकांत धारणा का यहां निराकरण करते हैं- ज्ञान में जो सुख कहा है वह मुख्यता का अभाव होने से उपचार मात्र ही है। भिन्न-भिन्न गुणों का एक साथ सम्बन्ध यहां उपचार से प्रवृत्त है। भिन्न गुणों के भिन्न कार्य देखे जाने के कारण ज्ञान गुण से सुख गुण भिन्न है। भिन्न-भिन्न कार्य करने वाले होने से समस्त गुण आत्मा में भिन्न रूप से रहते हैं। इसलिए भेद विवक्षा से संज्ञा लक्षण और प्रयोजन आदि की अपेक्षा इन गुणों में भिन्नपना भी जानना चाहिए। यदि ऐसा नहीं मानते हैं तो फिर अनन्तचतुष्टय रूप चेतनात्मक कहे जाने वाले मुख्य गुण तीन होंगे, यह दोष आएगा। इसी प्रकार ज्ञान मार्गणा में क्या सुख गुण का ग्रहण किया है? नहीं किया है। यह दूसरा दोष उत्पन्न होगा। अर्थात् ज्ञान ही यदि सुख होता तो ज्ञान मार्गणा में सुख का ग्रहण होता। आगम प्रमाण देते हुए पूज्य आचार्यश्री ने कहा है- इन पूज्य अरहंत भगवान् में जो कि निश्चित रूप से आप्त रूप से सहित हैं, पापकर्म की हानि से तो ज्ञान जिनका पूर्णता को प्राप्त है, उनमें भी वह वेदनीय कर्म के नाश से उत्पन्न होने वाला अव्याबाध सुख (सिद्धों में पाया जाने वाला निर्बाध सख) निश्चय से नहीं देखा जाता है। इस प्रमाण से सख गुण ज्ञान गुण से भिन्न सिद्ध होता है।
किसी के द्वारा शंका करने पर कि चूंकि मोहनीय कर्म के क्षय से अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। अतः सर्वज्ञदेव के अनन्त सुख की तरह ही क्षीणमोह गुणस्थान में अनन्त सुख होता है। ऐसा कहने पर पूज्य आचार्यश्री उनका निराकरण करते हैं कि यह कथन योग्य नहीं है, क्योंकि अनन्तवीर्य के बिना भी अनन्त सुख और अनन्त ज्ञान होता है, यह आगम से विरुद्ध है।