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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019 चैतन्य चन्द्रोदय में सर्वज्ञ विमर्श
चैतन्य चन्द्रोदय परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा संस्कृत भाषा में निबद्ध काव्य है। इसमें सर्वज्ञ के स्वरूप एवं उनके आत्मगुणों के बारे में सूक्ष्म चिन्तन किया गया है। सर्वज्ञ दशा में जीव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख एवं अनन्त वीर्य रूप अनन्त चतुष्टय से युक्त होता है। प्रतिपक्षी द्वारा शंका करने पर कि छद्मस्थ अवस्था में दर्शनोपयोग का जो प्रयोजन है वह निश्चित ही क्रम से हो तथा बाद में सर्वज्ञ दशा में पाप की हानि हो जाने से ज्ञानोपयोग मात्र ही कार्यकारी होता है।'' छद्मस्थतायां किल दर्शनस्य प्रयोजनं यत्क्रमतोऽस्तु पश्चात्।
इस पक्ष का निरसन करते हुए पूज्य आचार्य श्री कहते हैं- द्वन्द्व से रहित जन कहते हैं कि निश्चय से जो कुछ समस्त जगत् के पदार्थ हैं वे दोनों धर्म वाले हैं। हे साधु! ज्ञानोपयोग का विषय विशेष को ग्रहण करना है और दर्शनोपयोग का विषय निश्चित ही सामान्य को ग्रहण करना है। वस्तुतः कोई भी गुण किसी दूसरे गुण का न आधेय होता है, न आधार होता है, न कार्य होता है। जो दर्शन गुण है वह ज्ञान गुण नहीं है और न अन्य है। जो ज्ञान गुण है वह दर्शन गुण नहीं है और न अन्य है। जो दर्शन का विषय है वह ज्ञान का विषय नहीं है. जो ज्ञान का विषय है वह दर्शन का विषय नहीं है। समस्त गुण शक्ति रूप से द्रव्य में अपने स्वरूप से ही रहते हैं। ज्ञानगुण सविकल्प है, दर्शन गुण निर्विकल्प है।
दर्शन और ज्ञान गुण के विषय को नहीं जानने वाले वे पूर्वाग्रही मुक्त नहीं होते हैं। पूर्वाग्रह को नहीं छोड़ना ही मोह है। उस पूर्वाग्रह को छोड़े बिना क्या दोष होगा? कहते हैं- सर्वज्ञ अवस्था में यदि विज्ञान मात्र कार्यकारी है, ऐसा आपने माना है तो दर्शन गुण की हानि हो जाएगी। इस दर्शन को जो आवृत करता है, वह दर्शनावरण कर्म होता है। ढकने योग्य दर्शन है, जब वह ही नहीं है तो उसको ढकने वाला कर्म भी नहीं होगा। दर्शन की हानि होने पर दर्शनावरण कर्म का अभाव होगा, जिससे कर्म सात ही रह जाएंगे, यह दोष आएगा। जैसा कि पूज्य आचार्य वीरसेन स्वामी ने कहा है- यदि दर्शन का सद्भाव न माना जाए तो दर्शनावरण के बिना सात सात कर्म ही होंगे, क्योंकि आवरण करने योग्य दर्शन का अभाव मानने पर