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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019 सर्वज्ञता पर बल नहीं दिया। उन्होंने कितने ही अतीन्द्रिय पदार्थों को अव्याकृत (न कहने योग्य) कहकर उनके विषय में मौन ही रखा।' पर उनका यह स्पष्ट उपदेश था कि धर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थ का साक्षात्कार या अनुभव हो सकता है। उसके लिए किसी धर्म या पुस्तक की शरण में जाने की आवश्यकता नहीं है। वस्तुतः बौद्ध दर्शन में विशेष बल हेयोपादेय तत्त्वज्ञता पर ही है, ऐसा कहा जा सकता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में सर्वज्ञता
न्याय-वैशेषिक ईश्वर में सर्वज्ञत्व मानने के अतिरिक्त दूसरे योगी आत्माओं में भी उसे स्वीकार करते हैं; परन्तु उनकी वह सर्वज्ञता अपवर्ग प्राप्ति के बाद नष्ट हो जाती है, क्योंकि वह योग तथा आत्ममनः संयोग जन्य गुण अथवा अणिमा आदि ऋद्धियों की तरह एक विभूति मात्र है। मुक्तावस्था में न आत्ममनः संयोग रहता है और न योग। अतः ज्ञानादि गुणों का उच्छेद हो जाने से वहाँ सर्वज्ञता भी समाप्त हो जाती है। हाँ वे ईश्वर की सर्वज्ञता अवश्य अनादि अनन्त मानते हैं। सांख्य-योग दर्शन में सर्वज्ञत्व
निरीश्वरवादी सांख्य प्रकृति में और ईश्वरवादी योग ईश्वर में सर्वज्ञता स्वीकार करते हैं। सांख्य दर्शन का मन्तव्य है कि ज्ञान बुद्धि तत्त्व का परिणाम है और बुद्धि तत्त्व महत्तत्त्व और महत्तत्त्व प्रकृति का परिणाम है। अतः सर्वज्ञता प्रकृति तत्त्व में निहित है और वह अपवर्ग हो जाने पर समाप्त हो जाती है। योगदर्शन का दृष्टिकोण है कि पुरुष विशेष रूप ईश्वर में नित्य सर्वज्ञता है और योगियों की सर्वज्ञता, जो सर्वविषयक 'तारक' विवेक ज्ञान रूप है, अपवर्ग के बाद नष्ट हो जाती है। अपवर्ग अवस्था में पुरुष चैतन्य मात्र में जो ज्ञान से भिन्न है, अवस्थित रहता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि हर योगी को वह सर्वज्ञता प्राप्त हो। तात्पर्य यह है कि योगदर्शन में सर्वज्ञता की सम्भावना तो की गई है, पर वह योग विभूतिजन्य होने से अनादि अनन्त नहीं है, केवल सादि सान्त है। वेदान्त दर्शन में सर्वज्ञता
वेदान्त दर्शन के अनुसार सर्वज्ञता अन्त:करण निष्ठ है और वह जीवन्मुक्त दशा तक रहती है, उसके बाद वह छूट जाती है। उस समय