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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019
समझने का प्रयत्न करेंगे।
भारत के संविधान निर्माता डॉ. बी.आर. अम्बेडकर हिन्दू धर्म के कट्टर विरोधी थे, क्योंकि हिन्दू धर्म में वर्णवाद और छुआछूत बहुत
अधिक था। अतः उन्होंने निश्चय किया कि वे हिन्दू धर्म का त्याग करके किसी ऐसे धर्म को अपनायेंगे जो मानव मात्र के कल्याण की बात करता हो। उनके पास दो विकल्प थे, या तो जैन बन जायें या फिर बौद्ध; लेकिन जैन समाज को शूद्र वर्ण के लोगों को जैन बन जाना नहीं सुहा रहा था। जैनों के विरोध को डॉ. अम्बेडकर ने भाँप लिया था। हमारे संतों ने भी इस बात का विरोध किया। इस विरोध के कारण सन् 1956 में डॉ. अम्बेडकर ने अपने पांच हजार समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म अपना लिया। बाद में और भी अन्य लोगों ने बौद्ध धर्म अपना लिया। इससे पूर्व हमारे आचार्य तो हरिजन मंदिर प्रवेश को लेकर आमरण अनशन पर बैठ गये थे। मेरी दृष्टि में यह हमारी बहुत बड़ी भूल थी। यदि हमने अम्बेडकर जैसे लोगों को अपने में मिला लिया होता तो आज हमारी स्थिति और भी अच्छी होती। स्मरण रहे प्राचीन काल में भी चारों वर्गों के लोग जैन धर्म मानते थे।
जरा विचार करिये, आज यदि उच्च पद पर आसीन राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री या फिर कोई मंत्री या उच्च अधिकारी हमारे संतों के पास आये या फिर हमारे तीर्थों के दर्शनार्थ आये तो क्या पहले हम उससे उसकी जाति या वर्ण पूछते हैं। हम ऐसा कभी नहीं करते, बल्कि हम हमेशा चाहते हैं कि वे हमारे धार्मिक आयोजनों में सम्मिलित हों। हम उनसे आने के लिए निवेदन करते रहते हैं। आज छुआछूत का विचार भी पहले जैसा नहीं है। अतः हमें मानना होगा कि हरिजनों को जैन धर्म में सम्मिलित न कराना तत्कालीन संतों व समाज के नेतृत्व की अदूरदर्शिता रही। यदि हमने हरिजनों को जैन बना लिया होता तो हमारी संख्या बहुत अधिक होती। आज भी यदि हमारे संत चाहें तो इस दिशा में प्रयास कर सकते हैं। लेकिन हमें अपने विचारों को उदार बनाना होगा।
अनेक जैन शास्त्रों में सम्यक्दर्शन के प्रभावना अंग का विस्तृत वर्णन मिलता है। इसमें बताया गया है कि दान देने से भी प्रभावना होती