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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
है। लेकिन हमारे विद्वानों ने दान की परिभाषा बहुत ही तंग कर रखी है। दान मात्र जैन संतों या जैन अनुयायियों को ही दिया जा सकता है, यदि हमें जैनधर्म की सच्ची प्रभावना करनी है तो दान के अर्थ को व्यापक बनाना होगा। साधर्मी को सहायता तो की ही जानी चाहिए, लेकिन जो अजैन हैं, उन्हें भी आवश्यकतानुसार भोजन, औषधि, शिक्षा और मकान उपलब्ध कराकर उन्हें जैनधर्म में सम्मिलित किया जाना चाहिए। आज भी देश के करोड़ों लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। क्या उन्हें भोजन, औषधि, शिक्षा आदि प्रदानकर धर्मलाभ नहीं दिया जा सकता? जब कभी बड़े-बड़े खर्चीले आयोजनों व निर्माण कार्यों से फुरसत मिल जाये तो उस पर विचार अवश्य करना चाहिए।
एक बार तेरापंथ के आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी दक्षिण भारत की यात्रा पर गये थे। उन्होंने केरल में टूटे हुये अनेक प्राचीन मंदिरों को देखा। उन्होंने लिखा कि प्राचीन समय में केरल सहित दक्षिण भारत में जैनधर्म का बहुत प्रचार था। जैनों की जनसंख्या भी बहुत थी, लेकिन आज नहीं है। इसका एक प्रमुख कारण है कि जैन लोग अपने कर्तव्यों से विमुख हो गये। जैनधर्मानुसार जो भूखा है उसे भोजन दो, जो बीमार है उसे औषधि दो. जो अशिक्षित है उसे शिक्षा उपलब्ध कराओ: यही सही रूप में दान है; लेकिन जैनों ने इस विचार को सीमित कर लिया तथा ईसाईयों ने अपना लिया। इस कारण केरल के गरीब जैनों ने ईसाई धर्म अपना लिया। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने एक बात और कही कि कोरे अध्यात्म की बातों से कोई जैन नहीं बनता। पहले भोजन आदि की व्यवस्था करो, बाद में अध्यात्म या जैन बनाने की बात करो।
आज जितने भी जैन बचे हैं वे भी जैनधर्म से अपना मोह और ममत्व कम करते जा रहे हैं। उसका मुख्य कारण है कि हमारे संतों व विद्वानों की आम जैन लोगों में पकड़ कम होती जा रही है। बड़े-बड़े आयोजन देखकर यह भ्रम तो होता है कि बहुत भीड़ इकट्ठी हो रही है। अत: बहुत प्रभावना हो रही है। लेकिन जरा गौर से देखिएगा कि उस भीड़ में नहीं होते हैं। धनवानों का बोलबाला रहता है, क्योंकि बड़ी-बड़ी बोलियां वे लोग ही लेते हैं। संतों द्वारा धनवानों की प्रशंसा होती रहती है।