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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
है। यह सब जैनधर्म के ह्रास होने के ही लक्षण हैं। अतः ऐसा लगता है कि वर्तमान युग उपकल्की -युग ही है।
अब प्रश्न यह है कि उपकल्की है कौन? मेरा मानना है कि वर्तमान युग में जैनधर्म के ह्रास होने के जो लक्षण दिखाई दे रहे हैं इसके लिए किसी उपकल्की की आवश्यकता नहीं, इस सबके लिए तो हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि वर्तमान में तो धर्म की बहुत प्रभावना हो रही है, आज अनेकों संत उपलब्ध हैं, आये दिन पंचकल्याणक, विधान, नये मंदिरों व तीर्थों के निर्माण कार्य हो रहे हैं। अतः यह जैनधर्म का ह्रास नहीं बल्कि पंचमकाल का उत्कर्ष काल है। यदि हम गंभीरता से विचारें तो ऐसा मात्र लगता है; लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है। यदि धर्म की बहुत प्रभावना हो रही है तो जैनों की संख्या में वृद्धि होना चाहिए, कुछ अजैनों को जैन बनना चाहिए, कम से कम जो जैन थे या हैं उन्हें अन्य मत मानने के बजाय जैनधर्म में और अधिक दृढ़ होना चाहिए, लेकिन ऐसा कुछ नजर नहीं आता है। वास्तविकता यह है कि सन् 1947 में जितने प्रतिशत जैन थे, आज उतने भी नहीं हैं। मैंने दो जिलों के सरकारी गजट देखे- एक अलवर और दूसरा भरतपुर का। इनका प्रकाशन सन् 1968 में हुआ है। भरतपुर के गजट से जानकारी प्राप्त हुई कि भरतपुर की कामां तहसील में विजयवर्गीय जाति के वणिक रहा करते थे जो जैन मत मानते थे। आज प्रायः सभी विजयवर्गीय लोग वैष्णव/हिन्दू धर्म को मानते हैं। अलवर जिले के गजट से पता चला कि सन् 1951 में अलवर जिले में जैनों की जनसंख्या वहाँ की कुल जनसंख्या का 1.1 प्रतिशत थी, जो सन् 1961 में घटकर मात्र 0.5 प्रतिशत रह गई।
महाराष्ट्र की कसार जाति के बारे में हम सभी जानते हैं कि कुछ दशकों पूर्व उनकी जनसंख्या 80 हजार रह गई है। लगभग 60 हजार जैन कसार हिन्दू हो गये। इस प्रकार जैनों की जनसंख्या कम होने के दो कारण रहे, एक तो नये जैन बने नहीं तथा दूसरे जो जैन थे वे भी अजैन होते चले गये। आज भी अजैन होने की प्रक्रिया जारी है। जो अपने नाम के आगे जैन लिखते भी हैं, उनमें से बहुत से नाममात्र के ही जैन हैं तथा अन्य मत के देवी-देवताओं के प्रति समर्पित हैं। आगे हम इनके कारणों को