________________
अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019
यहाँ एक बात विदित है कि मिथुन युग्म शिल्पकला में उतारने की परम्परा सभी स्थानों पर (जैन, बौद्ध एवं हिन्दू) समान रूप से मान्य रही है, किन्तु इनका स्थान देवालयों के बाह्य मण्डोवरों, वितानों आदि स्थानों पर ही स्वीकार्य हुआ।
जिनालयों में कहीं भी गर्भगृह में इस तरह के अंकन नहीं मिलते। वहाँ मात्र आराध्य 'जिन' की प्रतिमा को ही प्रतिष्ठित किया जाता है। अर्थात् विकेन्द्रित मन:स्थिति उत्पन्न करने वाले दृश्यों को देखने के पश्चात् अपने मन को केवल आराध्य में ही केन्द्रीभूत रखकर, गर्भगृह में पहुँचने वाला दर्शक अपने आराध्य की सफल आराधना कर सकता है।
इस प्रकार जैन देवालयों में मात्र धार्मिक विषयों को ही महत्त्व नहीं दिया गया वरन् समाज के अन्य पक्षों को भी अंकित किया गया है। इसमें धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों ही पुरुषार्थों का समाज में स्थान देते हुए भी सभी का धर्म को ध्यान में रखकर पालन श्रेष्ठ माना है। जिनालयों में अंकित विषय मात्र मनोरंजन नहीं करते, वरन् तत्कालीन धर्म, दर्शन, संस्कृति एवं सामाजिक व्यवस्था का गढ ज्ञान कराते हैं। संदर्भ : 1. 'त्रिपथगा' वर्ष 5, अंक 3, पृष्ठ-55 2. सोमपुरा, प्रभाशंकर भारतीय शिल्प संहिता, सोमैया पब्लिकेशन प्रा. लि., मुम्बई, 1975,
प्रस्तावना 3. वही 4. देसाई, देवांगना, एरोटिक स्कल्पचर ऑफ इण्डिया, टाटा मेकग्रॉ-हिल पब्लिशिंग कं. लि.
नई दिल्ली , 1975, पृ. 4, 5
-एसोसियट प्रोफेसर, ड्राइंग एण्ड पेंटिंग, 448, शास्त्री सर्कल उदयपुर-313001 (राज.)
******