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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019
जिनेन्द्रदेव के दर्शन का महत्त्व :
फलं ध्यानाच्चतुर्थस्य षष्ठस्योद्यानमात्रतः। अष्टमस्य तदारंभे गमने दशमस्य तु॥ द्वादशस्य ततः किञ्चिन्मध्ये पक्षोपवासजम्। फलं मासोपवासस्य लभते चैत्यदर्शनात्॥ चैत्याङ्गणं समासाद्य याति पाण्मासिकं फलम्। फलं वर्षोपवासस्य प्रविश्य द्वारमश्नुते॥ फलं प्रदक्षिणीकृत्य भुंक्ते वर्षशतस्य तु। दृष्ट्वा जिनास्यमाप्नोति फलं वर्षसहस्रजम्॥ अनन्तफलमाप्नोति स्तुतिं कुर्वन् स्वभावतः। न हि भक्तेर्जिनेन्द्राणां विद्यते परमुत्तमम्॥
(पद्मचरित, पर्व 32, श्लोक 178-182) जब कोई व्यक्ति जाने का विचार करता है तो उसे चतुर्थभक्त अर्थात् एक उपवास का, जब चलने को उद्यत होता है तो षष्ठ भक्त अर्थात् दो उपवास का, जब जाने का उपक्रम करता है तो अष्टम भक्त अर्थात् तीन उपवास का, गमन प्रारंभ करता है तो दशभक्त अर्थात् चार उपवास का, कुछ चलने पर बारह भक्त अर्थात् पांच उपवास का, आधे मार्ग में पहुंचने पर एक पक्ष के उपवास का तथा जिनमंदिर पहुंच जाने पर छह माह के उपवास का, मंदिर के द्वार में प्रवेश करने पर एक वर्ष के उपवास का, प्रदक्षिणा करके सौ वर्ष के उपवास का तथा जिन मुद्रा का भावपूर्वक दर्शन करके एक हजार वर्ष के उपवास का फल प्राप्त करता है। जिनेन्द्रदेव की भक्ति से उत्कृष्ट फल अन्य कोई नहीं है। इसे संक्षेप में इस प्रकार देख सकते हैं
मन में विचार = चतुर्थ भक्त = 1 उपवास उद्यत होना
षष्ठ भक्त
2 उपवास गमन का उपक्रम अष्टम भक्त 3 उपवास गमन का आरंभ
दशम भक्त
4 उपवास चलना (कुछ)
द्वादश भक्त = 5 उपवास अर्द्ध मार्ग पहुंचना = एक पक्ष
= 15 उपवास