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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
अक्षत-पुष्पादि से पूजा करता हो या नहीं, वह प्रतिदिन देवदर्शन अवश्य करता है।
श्री अभ्रदेव ने व्रतोद्योतनश्रावकाचार में प्रारंभ में ही कहा है
भव्येन प्रातरुत्थाय जिनबिम्बस्य दर्शनम्। विधाय स्वशरीरस्य क्रियते शुद्धिरुत्तमा॥ पद्य 2
अर्थात् भव्य पुरुष को प्रात:काल उठकर शरीर की शुद्धि करके जिनबिम्ब का दर्शन करना चाहिए। आचार्य पद्मनन्दी ने पञ्चविंशतिका में स्पष्टतया लिखा है
प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवतागुरुदर्शनम्। भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः॥
-उपासकसंस्कार पद्य 16 अर्थात् श्रावकों को प्रात:काल उठकर भक्ति के साथ देव एवं गुरु का दर्शन और उनकी वन्दना करना चाहिए। यहाँ यह ध्यातव्य है कि यदि गुरु उपलब्ध हों तो देवदर्शन एवं देववन्दना के समान गुरुदर्शन एवं गुरुवन्दना का विधान भी श्रावकाचार में आवश्यक माना गया है। सभी श्रावकाचारों में जिनेन्द्रदेव के दर्शन को जाते समय ईर्यासमिति से गमन करने का विधान किया गया है।
पं. आशाधर जी ने तथा कुछ अन्य श्रावकाचार प्रणेताओं ने जिनमन्दिर में 'नि:सही' उच्चारण करते हुए प्रवेश का विधान किया है। यह परम्परा आज समाज में प्रचलित भी है, किन्तु किसी भी श्रावकाचार में इसका अर्थ स्पष्ट नहीं किया है। 'जैन बाल गुटका' में ज्ञानचन्द्र जैन लाहौर ने 1918 ई. में (आज से लगभग 98 वर्ष पहले) द्वितीय भाग में इसका अर्थ किया था कि यदि कोई देवादिक जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन कर रहा हो तो वह निकल जाय या दूर हो जाय; परन्तु इसको पुष्ट करने वाला प्रमाण अद्यावधि दृष्टिपात नहीं हुआ है। विभिन्न शास्त्रों के आलोडन के आधार पर पं. हीरालाल शास्त्री ने नि:सही को निषेधिका का पर्यायवाची मानते हए लिखा है कि 'निस्सही' पद का रूप 'णमो णिसीहियाए' है और इसका प्राकृत में अर्थ है- 'इस जिनमंदिर को नमस्कार हो।' (श्रावकाचारसंग्रह भाग-4, प्रस्तावना पृष्ठ 155)