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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019
देवदर्शन का महत्त्व
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-डॉ. जयकुमार जैन
आचार्य समन्तभद्र ने चतुर्थ शिक्षाव्रत ( वैयावृत्त्य) के अन्तर्गत देवपूजा को स्थान दिया है
देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम् । कामदुहि कामदाहिति परिचिनुयादाष्टतो नित्यम्॥
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 119
अर्थात् वैयावृत्त्य नामक शिक्षाव्रत का अनुष्ठान करने वाले श्रावक को देवाधिदेव के चरणों में आदरसत्कारपूर्वक परिचर्या - पूजा को नित्य करना चाहिए। यह परिचर्या - पूजा सब दुःखों को हरने वाली, कामनाओं को पूरा करने वाली तथा काम को भस्म करने वाली है।
यहाँ पूजा के किसी मार्गविशेष का निर्देश नहीं किया गया है। परिचरण शब्द आदर-सत्कार रूप प्रवृत्ति का नाम तथा यह आदर-सत्कार दर्शन, स्तवन, पूजन आदि किसी भी रूप हो सकता है। जैसा कि आचार्य समन्तभद्र ने स्वयं स्वयंभूस्तोत्र में निम्न पद्य द्वारा प्रकट किया है
न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ! विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्न: पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः॥ (स्वयंभूस्तोत्र, 57 )
ऐसा प्रतीत होता है कि पहले साधारण गृहस्थ भी बारह व्रतों का पालन करते थे। जब यह उत्तरोत्तर कम होने लगा तो श्रावकत्व को स्थिर करने के लिए जिन षट्कर्मों का विधान किया गया, उनमें देवपूजा को प्रथम स्थान दिया जाने लगा।
श्रावक जब शारीरिक शुद्धिपूर्वक स्वच्छ वस्त्र धारण कर अक्षतपुष्पादि से अर्चना करता है, तो उसे देवपूजा कहा जाता है; किन्तु जब स्तुतिपूर्वक वन्दन - नमन करता है तो देवदर्शन कहा जाता है। आज प्रत्येक जैन