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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019 भेद बताते हुये आचार्य वट्टकेर कहते हैं कि
उट्ठिदउठ्ठिद उठ्ठिदणिविट्ठ उवविट्ठ उठ्ठिदो चेव। उवविठ्ठदणिविट्ठोवि य काओसग्गो चदुट्ठाणो॥
अर्थात् अत्थितात्थित (अत्थित-अत्थित), उत्थित विनष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्ट निवष्ट। इस प्रकार कायोत्सर्ग के चार भेद हैं।
कायोत्सर्ग प्रकरण में भेदों का विवेचन करते हुये नौ भेदों का विवेचन किया है। यथा
उसिउस्सिओ य तह उसिसओ अ उस्सिअनिसन्नओ चेव। निसननउसिओ निसन्नो निसन्नगनिसन्नओ चेव॥ निवन्नुसिओ निवन्नो निवन्नगनिवननगो अ नायव्वो।
एएसिं तु पयाणं पत्तेयपरूवणं वोच्छं।
अर्थात् उच्छ्रित-उच्छ्रित, उच्छ्रित, उच्छ्रित-निषण्ण, निषण्ण-उच्छ्रित, निषण्ण, निषण्ण-निषण्ण, निषन्न-उच्छ्रित, निषन्न (सुप्त), निषन्न-निषन्न ये सभी कायोत्सर्ग के भेद हैं। उच्छ्रित-उच्छ्रित अथवा उत्थितोत्थित
___ जो साधक किसी एक विवक्षित स्थान पर खड़े होकर धर्म और शुक्ल ध्यान में प्रवृत्त होता है, उसके उच्छ्रित-उच्छ्रित नाम का कायोत्सर्ग होता है। खड़े होकर कायोत्सर्ग करना द्रव्य उच्छ्रित है और धर्म-शुक्ल ध्यान रूप भाव का होना भाव कायोत्सर्ग है।' उच्छ्रित
जो साधक आर्त्त-रौद्र अथवा धर्म और शुक्ल किसी भी ध्यान में प्रवृत्त नहीं होता, उसके यह द्रव्य उच्छ्रित कायोत्सर्ग होता है। यहाँ ध्यान का अभाव होने से भाव उच्छ्रित कायोत्सर्ग है। जो साधक स्वभावतः प्रचलायमान
और सुषुप्त है वह न शुभध्यान में प्रवृत्त होता है और न अशुभ में। इसी प्रकार अव्यापारित चित्त वाला साधक जागता हुआ भी शुभ-अशुभ दोनों ध्यान में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि निद्रावस्था और सुषुप्तावस्था में ध्यान का अभाव और जागृत अवस्था में चित्त का अव्यापार। अतः ध्यान का अभाव होने से कोई भी ध्यान नहीं होता। नवजात, मूछित, अव्यक्त, मत्त और सुप्त- इनका चित्त स्थगित और अव्यक्त होता है तथा आलंबन में प्रगाढ़