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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
अर्थात् काय आदि पर द्रव्यों में स्थिर भाव छोडकर. जो आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है, उसे कायोत्सर्ग कहते हैं। मूलाचार में कायोत्सर्ग को परिभाषित करते हुये कहा है कि- 'दैवसिक निश्चित क्रियाओं में यथोक्त कालप्रमाण पर्यन्त उत्तम क्षमा आदि जिनगुणों को भावना सहित देह में ममत्व को छोड़ना ही कायोत्सर्ग है। योगसार के अनुसार देह को अचेतन, नश्वर व कर्मनिमित्त समझकर जो उसके पोषण आदि के अर्थ कोई कार्य नहीं करता वह कायोत्सर्ग का धारक है। जैनदर्शन में कायोत्सर्ग के दो अर्थ किये जाते हैं- कायोत्सर्ग तप और काय का शिथिलीकरण। कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ
शरीर का शिथिलीकरण। इससे शून्यता का अभ्यास होता है और एकाग्रता बढ़ती है। काय के पर्यायवाची शब्दों के संदर्भ में आचार्य भद्रबाहु द्वितीय द्वारा रचित कायोत्सर्ग प्रकरण में कहा है कि
काए सरीर देहे बुंदी चय उवचय य संघए। उस्सय समुस्सए वा कलेवरे भत्थ तण पाणू॥ उस्सग्ग-विउस्सरणा उज्झणा य अविकरण-छड्डण-विवेगो। वज्जण-चयणुम्मुअणा परिसाडण-साडणा चेव॥
अर्थात् काय, शरीर, देह, बोन्दि, चय, उपचय, संघात, उच्छ्रय, समुच्छ्रय, कलेवर, भस्त्रा, तनु और पाणु। इसी प्रकार उत्सर्ग के पर्यायवाची ग्यारह हैं- उत्सर्ग, व्युत्सर्जन, उज्झन, अविकरण, छर्दन, विवेक, वर्जन, त्यजन, उन्मोचना, परिषातना और शातना।
___ इस प्रकार से काय एवं उत्सर्ग के पर्यायवाची शब्दों का विवेचन प्राप्त होता है। यह कायोत्सर्ग दो प्रकार का है- चेष्टा और अभिभव। भिक्षाचर्या आदि प्रवृत्ति के पश्चात् कायोत्सर्ग करना 'चेष्टा' कायोत्सर्ग है
और प्राप्त उपसर्गों को सहन करने के लिए कायोत्सर्ग करना ‘अभिभव' कायोत्सर्ग है। अभिभव कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट काल एक वर्ष और जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। कायोत्सर्ग के भेद एवं स्वरूप
जैनधर्म-दर्शन में कायोत्सर्ग का सम्बन्ध केवल शरीर से न होकर आत्मा से है। अतः इसका महत्त्व स्वतः सिद्ध है। मूलाचार में कायोत्सर्ग के