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________________ अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019 29 आत्मसाक्षात्कार में कायोत्सर्ग का महत्त्व ___-डॉ. योगेश कुमार जैन साधना के क्षेत्र में धर्म और योग इन दो क्रियाओं का सर्वाधिक प्रचलन आदिकाल से ही रहा है। योग की परम्परा अद्यतन निर्दोष है, परन्तु धर्म के साथ अनेक कर्मकाण्ड जुड़ गये। कालक्रम के अनुसार योग की अनेक शाखाएं प्रचलित हो गई, यथा अध्यात्मयोग, ध्यानयोग, राजयोग आदि। चूंकि जैनाचार्य अनेकान्तवादी दृष्टि का प्रतिपादन करते हैं। अतः उन्होंने किसी एक शाखा को प्राथमिकता न देकर सबका समन्वय ही किया योग का आधार है गुप्ति जैन साधना पद्धति में मन-वचन-काय की एकाग्रता को ही गुप्ति अथवा कायोत्सर्ग कहा जाता है। अतः जैन साधना पद्धति का प्रथम सोपान कायोत्सर्ग है तथा ध्यान दूसरा। कायोत्सर्ग की सिद्धि होने पर ही ध्यान का विकास सम्भव है। जैन परम्परा में मोक्ष की आराधना के दो मार्ग हैं, श्रावक धर्म एवं मुनि धर्म। श्रावकों के लिए यथा देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम की साधना, तप और दान ये छः आवश्यक कर्तव्य निर्धारित हैं। उसी प्रकार मुनिचर्या के निर्दोष पालन हेतु आगमाधारित छः आवश्यक कर्तव्य बताये गये हैं- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है- काया का उत्सर्ग। काया को अप्रकम्प कर धर्म्य-शुक्ल ध्यान में लीन हो जाना ही कायोत्सर्ग है। यह ध्यान की अनिवार्य आवश्यकता है। कायोत्सर्ग का लक्षण कायोत्सर्ग को परिभाषित करते हुये आचार्य कुन्दकुन्द नियमसार में कहते हैं कि कायाईपरदव्वे थिरभावं परिहरत्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुसग्गं जो झायइ णिव्विअप्पेण॥'
SR No.538072
Book TitleAnekant 2019 Book 72 Ank 07 to 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2019
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size2 MB
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