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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
इनमें किया जाने वाला चिन्तन आत्मा की विशुद्धि तो बढ़ाता ही है साथ में नूतन कर्मों के आस्रव को रोकता है और आत्मा के साथ बद्ध कर्मों की एकदेश निर्जरा करता है। संवर-निर्जरा साक्षात् मोक्षप्राप्ति में निमित्त बनकर अक्षय-अनन्त सुखप्राप्ति के साधन हैं। सन्दर्भ : 1. शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा, अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा। सर्वार्थसिद्धि। 2. तत्त्वार्थसूत्र 9/7 3. एदे संवर हेदू वियारमाणो वि जो ण आयरइ।
सो भमइ चिरं कालं संसारे दुक्ख-संतत्तो।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा 100
अनुप्रेक्ष्यन्ते शरीराद्यनुगतत्वेन स्तिमितचेतस्य दृश्यन्ते इत्यनुप्रेक्षा। अनगार धर्मामृत 4. तत्त्वार्थवार्तिक भाग-2 (आ. सुपार्श्वमती कृत टीका) पृ. 570 5. गुत्ती जोग-णिरोहो समिदी य पमाद वज्जणे चेव।
धम्मोदया पहाणो सुत्ततचिंता अणुप्पेहा।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा 97 6. कार्तिकेयानुप्रेक्षा 98 7. वही 99 8. सम्मत्तं देस-वयं महव्वयं तह जओ कसायाणं।
एदे संवरणामा जोगाभावो तहा चेव। कातिकेयानुप्रेक्षा 95 9. गुत्ती समिदी धम्मो अणुवेक्खा तह य परीसह जओवि।
उक्किळं चारित्तं संवर हेदू विसेसेण।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा 96 10. तत्त्वार्थवार्तिक भाग 2 (आ. सुपार्श्वमती टीका) पृ. 570 11. प्रवचनसार 3/38 12. सा पुण दुविहा णेया सकालपत्ता तवेण कयमाणा।
चादुगदीणं पढया वयजुत्ताणं हवे विदिया।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा 104 13. तत्त्वार्थसूत्र 9/45 14. कार्तिकेयानुप्रेक्षा 110-111 15. जो समसोक्खणिलीणो वारं वारं सरेइ अप्पाणं। इंदिय-कसाय-विजई तस्स हवे णिज्जरा परमा।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा 114 -अध्यक्ष, अ. भा. दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद्,
बड़ौत (उ.प्र.)
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