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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019
27 जब मिथ्यात्व को नष्ट करने वाली शक्ति प्राप्त होती है तब मिथ्यात्व प्रकृति के मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति रूप तीन खण्ड होते हैं। जैसे कूटी जाने वाली धान में छिलका, कण और चावल ये तीन खण्ड होते हैं। मिथ्यात्व के एक खण्ड रूप सम्यक्प्रकृति नामक खण्ड का वेदन करता हुआ यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि होता है। इसके बाद जो प्रशम, संवेग आदि गुणों से युक्त है तथा जिनेन्द्र भक्ति से जिसकी भावनाओं की विशेष वृद्धि हो रही है। ऐसा मनुष्य जहां केवली भगवान् होते हैं या श्रुतकेवली होते हैं, वहां दर्शनमोह की क्षपणा प्रारंभ करता है, क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है। सम्यग्दृष्टि ही प्रथम स्थान गुणश्रेणी निर्जरा को प्राप्त होता है। आगे असंख्यातगुणी-असंख्यातगुणी होने वाली निर्जरा का विवेचन किया जा चुका है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षाकार निर्जरा करने वालों का विवेचन करते हुए कहते हैं
जो विसहदि दुव्वयणं साहम्मिय हीलणं च उवसग्गं। जिणिऊण कसाय-रिडं तस्स हवे णिज्जरा विउला॥
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा 109 जो मुनि कषाय रूपी शत्रुओं को जीतकर दूसरों के दुर्वचन अन्य साधर्मी मनियों के द्वारा किये गये अनादर और देव आदि के द्वारा किये गये उपसर्ग को सहता है, उसके बहत निर्जरा होती है।
जो परीषह सहन करता है। रत्नत्रय की सम्यक् परिपालना करता है, उसके भी विशेष निर्जरा होती है। जो मुनि समतारूपी सुख में लीन हुआ बार-बार आत्मा का स्मरण करता है। इन्द्रियों और कषायों को जीतने वाले साधु के उत्कृष्ट निर्जरा होती है। और भी कहा गया है- जिन्होंने कषाय शत्रुओं को जीत लिया है, दूसरों के दुर्वचनों को प्रसन्नतापूर्वक सहन करते हैं। जो अपने आत्मस्वरूप में लीन होते हुए शरीरादि के दोषों का चिन्तन करके उससे निर्मम होते हुए मोह को दूर करते हैं। रत्नत्रय की सम्यक् परिपालना करते हैं। द्वादश तपों की निर्दोष निष्काम आराधना करते हैं, ऐसे महामुनि निर्जरा के पूर्ण अधिकारी हैं।
उक्त वर्णित संवर और निर्जरा अनुप्रेक्षाएं मोक्ष की साधिका हैं।