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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
खवगो य खीण-मोहो सजोइणाहो तहा अजोईया। एदे उवरिं उवरिं असंख-गुण-कम्म णिज्जरा॥
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा 106-108 मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि के असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है। सम्यग्दृष्टि से अणुव्रतधारी के असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है। अणुव्रतधारी से ज्ञानी महाव्रती के असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है। महाव्रती से अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन करने वाले के असंख्यातगुणी कर्म-निर्जरा होती है। उससे दर्शनमोहनीय का क्षपण-विनाश करने वाले के असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है। उससे उपशम श्रेणी के आठवें, नौवें तथा दशवें गुणस्थान में चारित्र मोहनीय का उपशम करने वाले के असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है। उनसे ग्यारहवें गुणस्थान वाले उपशमक के असंख्यात गुणी कर्म-निर्जरा होती है। उससे क्षपक श्रेणी के आठवें नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्र मोहनीय का क्षय करने वाले के असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है। उससे बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान वाले के असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा होती है। उससे सयोग केवली के असंख्यात गुणी कर्म निर्जरा होती है और उससे असंख्यातगुणी कर्म निर्जरा अयोग केवली के होती है।
यहाँ यह विशेष ध्यातव्य है कि सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के सम्मुख सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव के जितनी निर्जरा होती है, उससे असंख्यातगुणी निर्जरा सम्यग्दृष्टि के होती है। अविरत सम्यग्दृष्टि जीव की यह गुणश्रेणी निर्जरा सम्यग्दर्शन के उत्पत्तिकाल में ही होती है, अन्य समय में नहीं।
__ऊपर हम यह स्पष्ट करके आये हैं कि जिन-जिन स्थानों में विशेष-विशेष परिणाम विशुद्धि है, उन-उनमें निर्जरा भी अधिक-अधिक होती है। ऐसे ग्यारह स्थान हैं। ग्यारहवां स्थान अयोग केवली का है, किन्तु टीकाकार ने सयोगकेवली के ही दो भेद करके स्वस्थान सयोग केवली का दसवां स्थान और समुद्घातगत सयोग केवली का ग्यारहवां स्थान बतलाया
अविपाक निर्जरा के दश स्थानों को तत्त्वार्थसूत्रकार ने वर्णित किया है, उनका चिन्तन साधक निर्जरा भावना के माध्यम से करता है कि