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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019
25 में जितने कर्मों को खपाता है, उतने कर्मों को ज्ञानी जीव क्षणमात्र में नष्ट कर देता है। क्षणमात्र में ज्ञानी त्रिगुप्ति से गुप्त होकर ही कर्मों का क्षय करता है। अकाम निर्जरा से भिन्न सकाम निर्जरा में तप की मुख्यता साधक रखता है। वह आध्यात्मिक कामना से तप करता है। तप में भी सभी आध्यात्मिक क्रियाएँ आ जाती हैं। तप शरीर को ही कृश नहीं करता, वह अन्तर में स्थित कषायों को भी कृश करता है। कर्मों को कृश करने से आत्मा निर्मल बनता है।
निर्जरा अनुप्रेक्षा का चिंतन तप के प्रति गहरी निष्ठा पैदा करता है। आत्मा में विशिष्ट विशुद्धता आती है। आत्मा से कर्मों का एकदेश क्षय करती है। पूर्वोक्त सविपाक और अविपाक निर्जरा की यह भी विशेषता है कि सविपाक काल चारों गतियों में होती है, किन्तु अविपाक निर्जरा व्रती मनुष्यों के ही होती है। स्वकाल निर्जरा में बंधे हुए कर्म अपने आबाधाकाल तक सत्ता में रहकर उदयकाल आने पर अपना फल देकर झड़ते हैं। जैसे वृक्ष पर पका हुआ फल अपने समय पर टपक पड़ता है। दूसरी अविपाक निर्जरा द्वादश तपों से होती है। जैसे कच्चे आमों को पाल में पका लिया जाता है, उसी प्रकार कर्मों को तपस्यापूर्वक उदयावली में समय से पर्व लाकर क्षय कर देना अविपाक निर्जरा है। सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः॥ त. सू. 9/45
इस सूत्र द्वारा आचार्य गिद्धपिच्छ उमास्वामी ने सम्यग्दृष्टि से लेकर केवली जिन तक के 10 स्थानों में असंख्यातगुणी निर्जरा का कथन किया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में विशेषता है कि केवलीजिन के सयोग और अयोग की विवक्षा से दो स्थान वर्णित हैं। अतः असंख्यातगुणी निर्जरा के एकादश स्थान माने गये हैं, उन्हीं को प्रतिपादित करते हुए आचार्य कार्तिकेय स्वामी ने कहा है
मिच्छादो सद्दिट्ठी असंख-गुण-कम्म-णिज्जरा होदि। तत्तो अणुवय-धारी तत्तो य महव्वई णाणी॥ पढम-कसाय-चउण्हं विजोजओ तह य खवय-सीलो य। दंसण-मोह-तियस्स य तत्तो उवसमग-चत्तारि॥