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________________ अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019 कर्मबन्ध के मूलकारणों का संवर द्वारा ही परिहार होता है। कर्मबन्ध के कारणों का परिहार होने से आत्मा में विशुद्धता बढ़ती है। संवर के होने से नवीन-नवीन कर्मों का प्रवाह बिल्कुल ही रुक जाता है। अर्थात् मन-वचन-काय की शुभ प्रवृत्ति में लगने के कारण अशुभोपयोग का संवर हो जाता है। आत्मध्यान में लीन होने पर या शुद्धोपयोग में पहुंचने पर शुभोपयोग का संवर हो जाता है। शुद्धोपयोग शुक्लध्यान में निमित्त है। ध्यान संवर के लिए अत्यावश्यक है। अतः साधक को निरन्तर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए, जिनसे संवर हो सके। अशुभ और शुभकर्मों के संवरपूर्वक ही निर्जरा सम्भव है। निर्जरा अनुप्रेक्षा : आत्मा में आस्रव-बन्ध के माध्यम से एकत्रित कर्म और संवर के द्वारा नवीन कर्मों का निरोध होने के बाद पूर्व संचित कर्मों का आत्मा से एकदेश झड़ना या पृथक् होना निर्जरा है। निर्जरा तप के द्वारा ही होती है; किन्तु सामान्य निर्जरा तो प्रत्येक जीव के प्रतिसमय होती ही रहती है, क्योंकि जो कर्म उदय में आकर फल दे चुके हैं, वे आत्मा से पृथक् हो जाते हैं। पृथक् होने वाले इन कर्मों को सविपाक निर्जरा कहा जाता है और तप के द्वारा होने वाली अविपाक निर्जरा कहलाती है। यह बारह प्रकार के तप के माध्यम से होती है और यही निर्जरा मोक्ष का साक्षात् कारण है। मोक्ष की कारणभूत निर्जरा का विशेष चिन्तन ही निर्जरा अनुप्रेक्षा है। जैसा कि कार्तिकेय स्वामी प्रतिपादित करते हैं वारसविहेण तवसा णियाण-रहियस्स णिज्जरा होदि। वेरग्ग-भावणादो णिरहंकारस्स णाणिस्स॥ ___-कार्तिकेयानुप्रेक्षा 102 अर्थात् निदान रहित, निरभिमानी, ज्ञानी पुरुष के वैराग्य की भावना से अथवा वैराग्य और भावना से बारह प्रकार के तप के द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है। यह वास्तविकता है कि निदान रहित निरभिमानी ज्ञानी पुरुष के वैराग्य की भावना का जो चिन्तन किया जाता है, वही कार्यकारी है। अज्ञानी का तप और भावना (चिन्तन) कर्मबन्ध का ही कारण होता है।
SR No.538072
Book TitleAnekant 2019 Book 72 Ank 07 to 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2019
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size2 MB
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