________________
अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019
पूर्ण संवर का अधिकारी है। जैसाकि आचार्य कार्तिकेय भी कहते हैंपुण विसय - विरत्तो अप्पाणं सव्वदो वि संवरइ । मणहर - विसहिंतो तस्स फुडं संवरो होदि ॥
जो
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा 101 अर्थात् जो मुनि विषयों से विरक्त होकर मन को हरने वाले पांचों इन्द्रियों के विषयों से अपने को सदा दूर रखता है, उनमें प्रवृत्ति नहीं करता है, उसी मुनि के निश्चय से संवर होता है।
संवर अनुप्रेक्षा का व्याख्यान करते हुए भट्टाकलंकदेव कहते हैं कि 'कछुवे के समान संकुचित अंग वाले संवरयुक्त आत्मा के सर्व आम्रव के दोष नहीं होते हैं। जैसे महासमुद्र में पड़ी हुई नौका में छिद्र को नहीं रोकने पर जलागम से संचित हुए जल का विप्लव होने पर नौका में बैठे हुए इष्ट स्थान पर पहुँच जाती है, उसमें बैठे हुए मानव सुरक्षित रहते हैं, उसी प्रकार कर्मागम द्वार के बन्द हो जाने पर (अर्थात् संवर हो जाने पर ) श्रेय (आत्मकल्याण) का कोई प्रतिबन्ध नहीं रहता है। संवर युक्त प्राणी का कल्याण अवश्य होता है। इस प्रकार संवर के गुणों का चिन्तन करना संवर अनुप्रेक्षा है।
21
गुप्ति, समिति धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र ये संवर के साधारण कारण माने गये हैं, क्योंकि इनमें प्रवृत्ति को रोकने की मुख्यता नहीं है और जब तक मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोका नहीं जाता तब तक संवर की पूर्णता नहीं हो सकती है । निवृत्ति की मुख्यता से संवर कारणों में आचार्य कार्तिकेय ने स्पष्ट किया है- गुप्ति मन-वचन - काय की प्रवृत्ति के रोकने का नाम है। इसके मनोगुप्ति - वचन गुप्ति - कायगुप्ति के भेद से तीन प्रकार वर्णित हैं। विकथा, कषाय वगैरह प्रमादों के छोड़ने को समिति कहते हैं। जिसमें दया ही प्रधान है, वह धर्म है। जीव- अजीव आदि तत्त्वों के चिन्तन करने को अनुप्रेक्षा कहते हैं।' क्षुधा आदि की वेदना को समतापूर्वक सहन करना परीषहजय है।' रागादि दोषों से रहित शुभध्यान में लीन आत्मस्वरूप को उत्कृष्ट चारित्र कहते हैं। ये सभी संवर के कारण
हैं।