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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
संवर और निर्जरा अनुप्रेक्षाओं का शास्त्रीय चिन्तन
-डॉ. श्रेयांस कुमार जैन
अध्यात्म प्रधान जैनधर्म में भावविशुद्धि का सातिशय माहात्म्य है और द्रव्य शुद्धि का भी महत्त्व कम नहीं है। भावशुद्धि के लिए निमित्त संवरतत्त्व को अपनाता है, उसी के अन्तर्गत द्वादशानुप्रेक्षा को संवर के कारणों में गिना गया है। इनके चिन्तन से साधक की मनःशुद्धि होती है। साम्यभाव की वृद्धि होती है। बार-बार के चिन्तन से त्याग की भावना बलवती होती है। पुनः पुनः प्रेक्षणं चिन्तनं स्मरणमित्यनुप्रेक्षा, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका में कहा भी गया है कि पुनः पुनः चिन्तन ही अनुप्रेक्षा है।' अनुप्रेक्षा में मानव जीव और जगत् के सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन मनन करता है। अनुप्रेक्षाएँ द्वादश हैं, उनमें संवर, निर्जरा अनुप्रेक्षाओं का विशेष स्थान है, उन्हीं का चिन्तन प्रस्तुत है। आचार्य कार्तिकेय संवर के कारणों पर विचार करते हुए लिखते हैं
गुत्ती समिदी धम्मो अणुवेक्खा तह य परिसह जओवि। उक्किठे चारित्तं संवर हेदू विसेसेण॥
कार्तिकेयानुप्रेक्षा 96 गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और उत्कृष्ट चारित्र ये विशेष रूप से संवर के कारण हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी संवर के ये ही कारण कहे हैं। अनुप्रेक्षा के द्वारा संवर के कारणों पर साधक को विचार करना चाहिए और आचरण करना चाहिए, क्योंकि जो पुरुष इन संवर के कारणों का विचार करता हुआ भी उनका आचरण नहीं करता है, वह दु:खों से संतप्त होकर चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है। संवर के कारणों के चिन्तन से कषाय और प्रमादों को छोड़ने की प्रवृत्ति होती है, साथ में रागादि दोषों को छोड़कर धर्म्य और शुक्ल ध्यान में लीन होता है
और संवर के गुणों का अनुचिन्तन करने वाले मनुष्य के नित्य संवर के प्रति तत्परता रहती है, वह संवर के लिए प्रयत्नशील भी रहता है। वही