________________
18
ANEKANTA ISSN 0974-8768
अथवा स्थितिबन्ध समाप्त हो जाने पर कर्म उदय में आते हैं और सुख-दुःख रूप फल देते हैं। इसलिये आज भी कर्मव्यवस्था प्रासंगिक है।
छहढाला में पण्डित दौलतराम जी ने लिखा है कि- 'जल पय ज्यों जिय तन मेला, पै भिन्न भिन्न नहीं भेला" अर्थात् आत्मा और शरीर वैसे ही हैं जैसे दूध और जल । जैसे दूध, दूध है और जल, जल है। दूध जल नहीं है और जल दूध नहीं है, वैसे ही आत्मा, आत्मा है और शरीर, शरीर है। आत्मा शरीर नहीं है और शरीर आत्मा नहीं है। दोनों एकाकार दिखलाई होते हुये भी पृथक् पृथक् हैं। आत्मा प्रतिपल ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों से घिरा हुआ है। बस, उसे राग-द्वेष रूप चिकनाई की आवश्यकता है और जैसे ही उसकी यह आवश्यकता पूर्ण होती है, आत्मा से कर्म चिपट जाते हैं और आत्मा पराधीन हो जाती है, उसका फलस्वरूप समाप्त हो जाता है।
हमारे स्वीकार करने अथवा अस्वीकार करने से कर्मव्यवस्था रुकती नहीं है। इसी प्रकार न अतीतकाल में रुकी है और न भविष्यत्काल में रुकेगी। कर्म व्यवस्था तो अनादिकाल से इसी प्रकार चली आ रही है और अनन्त काल तक इसी प्रकार चलती रहेगी। हम उसके द्रष्टा एवं भोक्ता मात्र हैं। हाँ, हम अपने पुरुषार्थ से कर्मबन्धन काट सकते हैं, आत्मा और कर्मों को पृथक् पृथक् कर सकते हैं। यही हमारा पौरुष है और यही हमारा पुरुषार्थ है।
यदि हमने जैनदर्शन के कारण कार्य रूप कर्मसिद्धान्त को सम्यक्रूपेण समझ लिया और उसको अपने जीवन में उतार लिया तो हम अनेक विपत्तियों से स्वतः बच जायेंगे। इसीलिये जैसे पूर्वकाल में कर्मसिद्धान्त की प्रासंगिकता थी, इसी प्रकार भविष्यत्काल में भी बनी रहेगी और आधुनिक जीवन में भी कर्म - सिद्धान्त की प्रासंगिकता है, इसमें कहीं कोई सन्देह नहीं है।
संदर्भ :
1. पञ्चास्तिकाय, गाथा 30
2. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 130
3. द्रव्यसंग्रह, गाथा 3