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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019
17 अबोध बालिकाओं के साथ बलात्कार करना और फिर जेल जाना जैसे कार्य हमारी मानसिक दुर्बलता के प्रतीक हैं। आत्म-हत्या जैसे विचारों को प्रोत्साहन देना और तदनुरूप आचरण करना, जैनदर्शन के कर्म सिद्धान्त को गहराई से न समझने के कारण हैं।
सम्पूर्ण विश्व में आतंकवाद का बोलबाला कर्म सिद्धान्त को न समझने के कारण है। पृथिवी को प्रभूत मात्रा में खोदना, वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई करना, जल का आवश्यकता से अधिक मात्रा में दोहन करना, विभिन्न जहरीली गैसों के माध्यम से वायु को प्रदूषित करना और आकाश का युद्धों के लिये उपयोग करना- ये सभी अनैतिक कार्य हैं, नीति विरुद्ध कार्य हैं। इनके माध्यम से व्यक्ति अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारने जैसी आत्मघाती क्रियाओं में संलग्न है।
ये सभी अनैतिक कार्य हमारी मूलभूत प्राकृतिक सम्पदा को नष्ट-भ्रष्ट कर रहे हैं। 'जल नहीं तो कल नहीं' जैसे मुहावरे भी हमें कुम्भकर्णी निद्रा से जगा नहीं पा रहे हैं। हम कहाँ जा रहे हैं? किस दिशा में प्रस्थान कर रहे हैं? इसका हमें स्वयं बोध नहीं है। यदि हमें अपनी भावी पीढ़ी को बचाना है तो हमें कर्म-सिद्धान्त की प्रासंगिकता को समझना होगा।
फास्ट फूड के सेवन ने हमारी शारीरिक संरचना पर डाका डाल दिया है। समचतुरस्र संस्थान जैसे शब्द अब शब्दकोशों की शोभा बढ़ा रहे हैं। रात्रि भोजन हमारी दिनचर्या को बिगाड़ रहा है। 'वस्त्रपूतं पिबेज्जलम्' जैसे आर्षवाक्यों को हमने कभी जीवन में नहीं उतारा है और अब बिसलरी की बाटलें हमारे जीवन का अंग बनती जा रही हैं।
हमें कर्म शब्द की मीमांसा करनी होगी। कर्म का अर्थ है- कार्य करना। इन्हें हम सत्संस्कार से भी सम्बोधित कर सकते हैं। यदि हमारे जीवन में अच्छे संस्कार आ गये तो आधुनिक जीवन में कर्म सिद्धान्त की प्रासंगिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है और यदि जीवन में अच्छे संस्कारों का अभाव है तो मद्यपान कर नालियों की शोभा बढ़ाना निश्चित है।
जैनदर्शन के अनुसार आत्मा कर्म पुद्गलों का संचय राग-द्वेष रूप परिणामों के अनुसार करता है। समय आने पर, कर्मों के पक जाने पर