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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
मानसिक क्रिया तो अत्यन्त सूक्ष्म है।
कान चाहे सीधे पकड़ो अथवा हाथ घुमाकर पकड़ो। पकड़ना कान ही है, वैसे ही स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाओ अथवा सूक्ष्म से स्थूल की ओर। कुल मिलाकर हमें कर्म के प्रति सावधान रहना है।
आज उपदेशकों की कमी नहीं है, कमी है तो केवल उन उपदेशों को जीवन में उतारने वालों की। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप जिन तीन रत्नों की चर्चा की गई है, उनमें सम्यग्दर्शन को स्वीकार करना अर्थात् सप्त तत्त्वों के स्वरूप के प्रति सच्ची श्रद्धा करना प्राथमिक योग्यता है। यदि तत्त्व स्वरूप के प्रति हमारी श्रद्धा दृढ़ हो जाये तो हमारा मानसिक तनाव कम हो जायेगा और हाई ब्लडप्रेशर एवं सुगर जैसी बीमारियाँ हमारे जीवन में आयेंगी ही नहीं। अतः यदि हमें स्वस्थ रहना है तो हमें मानसिक दुश्चिन्ताओं से अपने को मुक्त रखना होगा, अन्यथा हमें बीमारियों से घिरने में थोड़ी भी देर नहीं लगेगी।
धर्म और कर्म का परस्पर में सम्बन्ध है। सत्कर्म के माध्यम से हम धर्म की ओर प्रस्थान करते हैं और अन्त में समता की, समत्वभाव की प्राप्ति हो जाना धर्म है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं कि
चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिद्दिट्ठो। मोहक्खोह-विहीणो परिणामो अप्पणो हि समो॥
अर्थात् चारित्र ही वास्तव में धर्म है और जो धर्म है वह समता है, साम्यभाव है। अब साम्यभाव क्या है? इसे ही स्पष्ट करते हुये आचार्य कुन्दकुन्द आगे लिखते हैं कि- मोह और क्षोभ से रहित आत्मा का जो परिणाम है वही साम्य है। यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द ने मोह और क्षोभ- इन दो शब्दों का प्रयोग किया है। इन दोनों शब्दों का सरलीकृत संस्करण है राग और द्वेष। यहाँ मोह राग का वाचक है और क्षोभ द्वेष का वाचक है। इन राग और द्वेष रूप परिणामों से रहित होना ही वास्तविक चारित्र है। आज हम राग और द्वेष रूप परिणामों के कारण बेचैन हैं। इन्हीं के कारण हम दु:खी हैं। इन्हीं के कारण हम मानसिक रूप से रुग्ण हैं और हमें इनसे बचना है अर्थात स्वस्थ होना है, तो राग-द्वेष रूप मानसिक विचारों से हमें अपने को दूर रखना होगा।