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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019 कुल आठ प्राण होते हैं। पञ्चेन्द्रिय जीव के दो भेद हैं- मन रहित और मन सहित। मन रहित पञ्चेन्द्रिय जीव असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं, इनके श्रोत्रेन्द्रिय भी होती है, किन्तु मन नहीं। अतः असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव में नौ प्राण पाये जाते हैं। संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव के मन भी होता है। अतः संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव के दश प्राण पाये जाते हैं। इस प्रकार कम से कम चार प्राण और अधिक से अधिक दश प्राण जीव में पाये जाते हैं।
जीवों में प्राणों की हीनाधिकता उनके स्वोपार्जित कर्मों के कारण होती है, ऐसा जैनदर्शन का कर्मसिद्धान्त है। यह कर्म-सिद्धान्त तीनों कालों में समान रूप से कार्य करता है। आधुनिक जीवन में यह कर्म-सिद्धान्त वैसे ही कार्य करता है, जैसे वह अतीत काल में अपना प्रभाव दिखा चुका है और भविष्यत्काल में दिखलायेगा। ___आज के युवा प्रायः उन शक्तियों में विश्वास नहीं करते हैं, जो अतीत के अन्धकार में विलीन हो चुकी हैं अथवा भविष्य के गर्भ में समाहित हैं। युवा केवल वर्तमान को ही स्वीकार करता है, जिससे वह प्रत्यक्ष को ही स्वीकार करते हैं। अतः उनका सिद्धान्त है कि खाओ, पियो
और मौज करो।' चार्वाक का यह सिद्धान्त युवाओं के दिल-ओ-दिमाग पर हाबी है, जो युवावर्ग के लिये खतरनाक सन्देश है।
शास्त्रों में योग की चर्चा की गई है। आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में योग की परिभाषा करते हुये लिखा है कि- कायवाङ्मनः कर्म योगः। अर्थात् शारीरिक क्रिया, वाचिक क्रिया और मानसिक क्रिया का नाम योग है। वस्तुतः जीवकृत ये तीनों क्रियायें ही कर्म हैं। सामान्यतः मन, वचन और काय की क्रिया को क्रमशः रखा जाता है, क्योंकि किसी भी कर्म को करने की बात सर्वप्रथम मन में आती है, तदनन्तर वही बात वचन से निकलती है और अन्त में तदनुसार वही क्रिया शरीर के माध्यम से की जाती है। यह सूक्ष्म की ओर से स्थूल की ओर प्रस्थान है, किन्तु आचार्य उमास्वामी जन सामान्य को ध्यान में रखते हुए स्थूल से सूक्ष्म की ओर आते हैं और उन्होंने क्रम में पहले काय को रखा, तदनन्तर वचन को और सबसे अन्त में मन को रखा है। शारीरिक क्रिया स्थूल क्रिया है, जो सभी के द्वारा देखी जा सकती है। वाचनिक क्रिया उससे सूक्ष्म है और