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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019
आधुनिक जीवन में कर्म - सिद्धान्त की प्रासंगिकता
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-डॉ. कमलेश कुमार जैन
प्रत्येक धर्म-दर्शन में कर्मसिद्धान्त को स्वीकार किया गया है। यह कर्म शारीरिक भी होता है, वाचनिक भी होता है और मानसिक भी। जब कोई कर्म किया जाता है तो उसमें सर्वाधिक भूमिका मन की होती है। इसीलिये नीतिकारों ने कहा है कि मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः । अर्थात् मन ही मनुष्यों के कर्मबन्ध अथवा मोक्ष का कारण है।
सामान्य रूप से यह जनश्रुति प्रचलित है कि जो जैसा करता है उसका उसे वैसा ही फल मिलता है और यह जनश्रुति गलत नहीं है, अपितु यथार्थ है। प्रथमानुयोग साहित्य में इसके हजारों उदाहरण हमें मिल जायेंगे, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्म करने में व्यक्ति स्वतंत्र है, किन्तु कर्मफल की प्राप्ति में वह परतंत्र है। किये गये कर्म का फल जीवमात्र को भोगना ही पड़ता है, यह एक स्वाभाविक व्यवस्था है। जो लोग ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार करते हैं वे भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि कर्म का फल अवश्य मिलता है। यह बात अलग है कि कर्मफल को वे ईश्वर प्रदत्त मानते हैं।
आज वर्तमान में अनेक युवा आधुनिकता की होड़ में कर्म-सिद्धान्त स्वीकार नहीं करते हैं और मनमाने ढंग से अनेक व्यसनों में लिप्त हैं, किन्तु जैसे ही वे किसी मुसीबत में फँसते हैं अथवा उन्हें कोई रोग घेर लेता है तो वे कर्मफल में विश्वास करने लगते हैं। व्यक्ति कानून को धोखा देकर बच सकता है, किन्तु प्रकृति प्रदत्त कर्म को न तो वह धोखा दे सकता है और न कर्मफल से बच सकता है। अतः इस सच्चाई को जानकर बाल, युवा अथवा वृद्धों को खोटे कार्यों से बचकर अच्छे कार्यों प्रवृत्त होना चाहिए।
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जीव मात्र की विभिन्न पर्यायों एवं उनके आकार-प्रकार इस बात