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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
अपने पांचों इन्द्रियों के विषयों तथा क्रोध, मान, मायादि कषायों को वश में करके एकान्त स्थान अथवा श्री जिनमंदिर आदि में बैठकर शास्त्र स्वाध्याय, शास्त्रश्रवण, सामायिक, पूजन-भजन आदि धर्मकार्यों में काल को व्यतीत करना चाहिए। निद्रा कम लेनी चाहिये, आर्त-रौद्र परिणामों को अपने पास नहीं आने देना चाहिये। हर समय प्रसन्न-वदन रहना चाहिये
और इस बात को याद रखना चाहिये कि शास्त्र-स्वाध्यायादि जो कुछ भी धर्म के कार्य किये जावें वे सब रुचिपूर्वक और भावसहित होने चाहिये। कोई भी धर्मकार्य बेदिली, जाब्तापूरी या अनादर के साथ नहीं करना चाहिये और न इस बात का ख्याल तक ही आना चाहिए कि किसी प्रकार से यह दिन शीघ्र ही पूरा हो जावे; क्योंकि बिना भावों के सर्व धर्म-कार्य निरर्थक हैं। जैसा कि आचार्यों ने कहा है
भावहीनस्य पूजादि-तपोदान-जपादिकम्।
व्यर्थ दीक्षादिकं च स्यादजाकंठे स्तनाविव॥ जो मनुष्य बिना भाव के पूजादिक, तप, दान और जपादिक करता है अथवा दीक्षादि ग्रहण करता है, उसके वे सब कार्य बकरी के गले में लटकते हुये स्तनों के समान निरर्थक हैं।
___ अर्थात् जिस प्रकार बकरी के गले में स्तन निरर्थक हैं, उनसे दूध नहीं निकलता, वे केवल देखने मात्र के स्तन हैं, उस ही प्रकार बिना तदनुकूल भाव और परिणाम के पूजन, तप, दान, उपवासादि समस्त धार्मिक कार्य केवल दिखावामात्र हैं-उनसे कुछ भी धर्म-फल की सिद्धि अथवा प्राप्ति नहीं होती।
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