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अनेकान्त 72/3, जुलाई-सितम्बर, 2019 सूंघते हैं और स्वाध्याय, सामायिक, पूजन, भजन आदि कुछ भी धर्म-कर्म न करके अनादर तथा आकुलता के साथ उस दिन को पूरा करते हैं। वे कैसे उपवास के धारक कहे जा सकते हैं और उनको कैसे उपासक का फल प्राप्त हो सकता है? सच पूछिये तो ऐसे मनुष्यों का उपवास, उपवास नहीं है; किन्तु उपहास है। ऐसे मनुष्य अपनी तथा धर्म दोनों की हंसी और निन्दा कराते हैं, उन्हें उपवास से प्रायः कुछ भी धर्म-लाभ नहीं होता। उपवास के दिन पापाचरण करने तथा संक्लेशरूप परिणाम रखने से तीव्र पाप बंध की संभावना अवश्य है। हमारे लिये यह कितनी लज्जा और शरम की बात है कि ऊँचे पद को धारण करके नीची क्रिया करें अथवा उपवास का कुछ भी कार्य न करके अपने आपको उपवासी और व्रती मान बैठे।
इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि विधिपूर्वक उपवास करने से पांचों इन्द्रियाँ और मन शीघ्र ही वश में हो जाते हैं और इनके वश में होते ही उन्मार्ग-गमन रुककर धर्म-साधन का अवसर मिलता है। साथ ही उद्यम, साहस, पौरुष, धैर्य आदि सद्गुण इस मनुष्य में जागृत हो उठते हैं और यह मनुष्य पापों से बचकर सुख के मार्ग में लग जाता है; परन्तु जो लोग विधिपूर्वक उपवास नहीं करते, उनको कदापि उपवास के फल की यथेष्ट प्राप्ति नहीं हो सकती। उनका उपवास केवल एक प्रकार का कायक्लेश है, जो भावशून्य होने से कुछ फलदायक नहीं, क्योंकि कोई भी क्रिया बिना भावों के फलदायक नहीं होती (यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव शून्याः)। अतएव उपवास के इच्छुकों को चाहिये कि वे उपवास के आशय और महत्त्व को अच्छी तरह से समझ लें, वर्तमान विरुद्धाचरणों को त्याग करके श्रीआचार्यों की आज्ञानुकूल प्रवर्ते और कम से कम प्रत्येक अष्टमी तथा चतुर्दशी को (जो पर्व के दिन हैं) अवश्य ही विधिपूर्वक तथा भावसहित उपवास किया करें। साथ ही इस बात को अपने हृदय में जमा लेवें कि उपवास के दिन अथवा उपवास की अवधि तक व्रती को कोई भी गृहस्थी का धंधा व शरीर का श्रृंगारादि नहीं करना चाहिए। उस दिन समस्त गृहस्थारंभ को त्याग करके पंच पापों से विरक्त होकर अपने शरीरादि से ममत्व-परिणाम तथा रागभाव को घटाकर और