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ANEKANTA - ISSN 0974-8768 और आरम्भ के त्याग किए बिना चार प्रकार के आहार का त्यागना उपवास नहीं कहलाता।
स्वामी समन्तभद्राचार्य की उपवास के विषय में ऐसी आज्ञा हैपंचानां पापानामलंक्रियाऽऽरम्भ-गंध-पुष्पाणाम्। स्नानाऽञ्जन-नस्यानामुपवासे परिहृतिं कुर्यात्॥॥॥ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान्।
ज्ञान-ध्यान-परो वा भवतूपवसन्न तन्द्रालुः॥2॥
उपवास के दिन पांचों पापों- हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह का श्रृंगारादिक रूप में शरीर की सजावट का, आरम्भों का, चन्दन इत्र-फुलेल आदि गंध द्रव्यों के लेपन का, पुष्पों के सूंघने तथा माला आदि धारण करने का, स्नान का, आंखों में अंजन (सुरमा) लगाने का और नाक में दवाई डालकर नस्य लेने तथा तमाख आदि सँघने का त्याग करना चाहिये।
उपवास करने वाले को दिन निद्रा तथा आलस्य को छोड़कर अति अनुराग के साथ कानों द्वारा धर्मामृत को स्वयं पीना तथा दूसरों को पिलाना चाहिये और साथ ही ज्ञान तथा ध्यान के आराधन में तत्पर रहना चाहिए।
इस प्रकार उपवास के लक्षण और स्वरूप-कथन से यह साफतौर पर प्रकट है कि केवल भूखे मरने का नाम उपवास नहीं है; किन्तु विषय-कषाय का त्याग करके इन्द्रियों को वश में करने, पंच पापों तथा आरम्भ को छोड़ने और शरीरादि से ममत्व परिणाम को हटाकर प्रायः एकान्त स्थान में धर्मध्यान के साथ काल को व्यतीत करने का नाम उपवास है और इसी से उपवास धर्म का एक अंग तथा सुख का प्रधान कारण है।
जो लोग (पुरुष हो या स्त्री) उपवास के दिन झूठ बोलते हैं, चोरी करते हैं, मैथुन सेवन करते हैं या अपने घर-गृहस्थी के धंधों में लगे रहकर अनेक प्रकार के सावधकर्म (हिंसा के काम) एवं छल-कपट करते हैं, मुकदमे लड़ाते और परस्पर लड़कर खून बहाते हैं तथा अनेक प्रकर के उत्तमोत्तम वस्त्राभूषण पहनकर शरीर का श्रृंगार करते हैं, सोते हैं, ताश, चौपड़ तथा गंजिफा आदि खेल खेलते हैं, हुक्का पीते या तमाखू आदि