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ANEKANTA - ISSN 0974-8768
'युगवीर' गुणाख्यान
उपवास
उपवास एक प्रकार का तप और व्रत होने से धर्म का अंग है। विधिपूर्वक उपवास करने से पांचों इन्द्रियां और बन्दर के समान चंचल मन ये सब वश में हो जाते हैं, साथ ही पूर्व कर्मों की निर्जरा होती है। संसार में जो कुछ दुःख और कष्ट उठाने पड़ते हैं, वे प्रायः इन्द्रियों की गुलामी
और मन को वश में न करने के कारण से ही उठाने पड़ते हैं। जिस मनुष्य ने अपनी इन्द्रियों और मन को जीत लिया, उसने जगत् जीत लिया, वह धर्मात्मा है और सच्चा सुख उसी को मिलता है। इसलिए सुखार्थी मनुष्यों का उपवास करना प्रमुख कर्तव्य है। इतिहासों और पुराणों के देखने से मालूम होता है कि पूर्व काल में इस भारतभूमि पर उपवास का बड़ा प्रचार था। कितने ही मनुष्य कई-कई दिन का ही नहीं, कई-कई सप्ताह, पक्ष तथा मास तक का भी उपवास किया करते थे। वे इस बात को भली प्रकार समझे हुए थे और उन्हें यह दृढ विश्वास था कि
कर्मेन्धनं यदज्ञानात् संचितं जन्म कानने।
उपवास-शिखी सर्व तदभस्मीकुरुते क्षणात्॥ उपवास फलेन भजन्ति नरा भुवनत्रय जात महाविभवान्। खलु कर्ममल प्रलयादचिरादजराऽमर-केवल-सिद्ध-सुखम्॥
संसार रूपी वन में अज्ञानभाव से जो कुछ कर्मरूपी ईंधन संचित होता है उसको उपवासरूपी अग्नि क्षणमात्र में भस्म कर देती है।
उपवास के फल से मनुष्य तीन लोक की महा विभव को प्राप्त होते हैं और कर्ममल का नाश हो जाने से शीघ्र ही अजर, अमर केवल सिद्ध सुख का अनुभव करते हैं।
इसी से वे (पूर्वकालीन मनुष्य) प्रायः धीरवीर, सहनशील, मनस्वी, तेजस्वी, उद्योगी, साहसी, नीरोगी, दृढसंकल्पी, बलवान्, विद्यावान् और सुखी होते थे, जिस कार्य को करना विचारते थे, उसको करके छोड़ते थे, परन्तु आज वह स्थिति नहीं है। आजकल उपवास की बिल्कुल मिट्टी पलीद है- प्रथम तो उपवास करते ही बहुत कम लोग हैं और जो करते