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________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 उससे गणधरदेव सदृश महानुभाव ज्ञान के सिन्धु भी अपने लिये अमूल्यज्ञान निधि प्राप्त करते हैं तथा महान मंदमति प्राणी, सर्प, गाय, व्याघ्र, कपोत, हंसादि पशु-पक्षी भी अपने-अपने योग्य ज्ञान की सामग्री प्राप्त करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि जिनेन्द्रदेव की दिव्यध्वनि अलौकिक वस्तु है, अनुपम है और आश्चर्यकारक है। उस वाणी के समान विश्व में अन्य कोई वाणी नहीं है। वाणी की लोकोत्तरता में कारण तीर्थकर भगवान् का त्रिभुवन वन्दित अनन्त सामर्थ्य समलंकृत व्यक्तित्व है। सामर्थ्यसम्पन्न गणधरदेव महान महिमाशाली सुरेन्द्र आदि भी प्रभु की अपूर्व शक्ति से प्रभावित होते हैं। योग के द्वारा जो चमत्कारयुक्त वैभव दिखाई पड़ता है, वह स्थूल दृष्टि वालों को समझ में नहीं आता है, अतएव वे विस्मय के सागर में डूबे ही रहते हैं। दिव्यधवनि तीर्थकर प्रकृति के विपाक उदय की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु है क्योंकि तीर्थकर प्रकृति कर्म का बन्ध करते समय केवली, श्रुत केवली के पादमूल में इसी भावना का बीज बोया गया था कि इस बीज से ऐसा वृक्ष बने, जो समस्त प्राणियों को सच्ची शांति तथा मुक्ति का मंगल संदेश प्रदान कर सके। मनुष्य पर्याय रूपी भूमि में बोया गया यह तीर्थकर प्रकृति रूप बीज अन्य साधन सामग्री पाकर केवली की अवस्था में अपना वैभव तथा परिपूर्ण विकास दिखाता हुआ त्रैलोक्य के समस्त जीवों को विस्मय में डालता है। आज भगवान् ने इच्छाओं का अभाव कर दिया है, फिर भी उनके उपदेश आदि कार्य ऐसे लगते हैं मानों वे इच्छाओं द्वारा प्रेरित हों। इसका यथार्थ में समाधान यह है कि पूर्व की इच्छाओं के प्रसाद से भी कार्य होता है। जैसे घड़ी में चाबी भरने के पश्चात् यह घड़ी अपने आप चलती है, उसी प्रकार तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करते समय जन कल्याणकारी भावों का संग्रह किया गया था, वे ही बीज अनन्तगुणित होकर विकास को प्राप्त हुए हैं। अतः केवली की अवस्था पूर्व संचित पवित्र भावना के अनुसार सब जीवों को कल्याणकारी सामग्री प्राप्त होती है। दिव्यध्वनि के विषय में कुन्दकुन्दाचार्य के सूत्रात्मक ये शब्द महत्वपूर्ण है-'तिहुवणहिदमधुरविसदवक्काणं' अर्थात् दिव्यध्वनि के द्वारा त्रिभुवन के समस्त भव्य जीवों को हितकारी, प्रिय तथा स्पष्ट उपदेश प्राप्त होता है। जब छद्मस्थ तथा बाल अवस्था वाले महावीर प्रभु के उपदेश के
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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