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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 का वर्णन है), जिसका शरीर बीजपदों से घड़ा गया है। जो प्रातः मध्याह्न और सायंकाल इन तीन संध्यायों में छह-छह घड़ी तक निरन्तर खिरती और और उक्त समय को छोड़कर इतर समय में गणधरदेव संशय विपर्यय और अनध्यवसाय को प्राप्त होने उनके प्रवृत्ति करने (उनके संशयादि को दर करने) का जिसका स्वभाव है, संकर और व्यतिकर दोषों से रहित होने के कारण जिसका स्वरूप विशद है और उन्नीस (अध्ययनों के द्वारा) धर्मकथाओं का प्रतिपादन करना जिसका स्वभाव है, इस प्रकार स्वभाववाली दिव्यध्वनि
तिलोयपण्णत्ति में इस दिव्यध्वनि के सम्बन्ध में वर्णन है कि यह 18 महाभाषा 700 लघभाषा तथा और भी संज्ञी जीवों की भाषा रूप परिणत होती है। यह ताल, दन्त, ओष्ठ, और कण्ठ की क्रिया से रहित होकर एक ही समय में भव्य जीवों को उपदेश देती है।
भगवान की दिव्यध्वनि प्रारम्भ में अनक्षरात्मक होती है. इसलिए उस समय केवली भगवान के अनभय वचन योग माना गया है। पश्चात श्रोताओं के कर्णप्रदेश को प्राप्त कर सम्यज्ञान को उत्पन्न करने से केवली भगवान के सत्य वचन योग का सदभाव भी आगम में माना है।
प्रश्न-सयोग केवली की दिव्यधवनि को किस प्रकार सत्य अनुभय वचन योग कहा है?
उत्तर : केवली की दिव्यध्वनि उत्पन्न होते ही अनक्षरात्मक रहती है, इसलिए श्रोताओं के कर्ण प्रदेश से सम्बन्ध होने के समय तक अनुभय वचन योग सिद्ध होता है। इसके पश्चात श्रोताओं के इष्ट अर्थो के विषय में संशय आदि को निराकरण करने से तथा सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न होने से सत्य वचन योग का सद्भाव सिद्ध होता है। इस प्रकार केवली के सत्य और अनुभय वचनयोग सिद्ध होते हैं।
इस कथन से ज्ञात होता है कि श्रोताओं के समीप पहुँचने के पूर्व वाणी अनक्षरात्मक रहती है, पश्चात् भिन्न-भिन्न श्रोताओं का आश्रय पाकर वह दिव्यध्वनि अक्षररूपता को धारण करती है। स्वामी समन्तभद्र ने जिनेन्द्रदेव की वाणी को सर्वभाषा स्वभाव वाली कहा है यथा
तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम् । प्रीणयत्यमृतं यद्वत्प्राणिनो व्यापि संसदि। -स्वयम्भूस्त्रोत्र ९७