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________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 अप्रतिपत्तिमास्य च तत्त्वं बोधयति स्म जिनस्य महिम्ना॥ एकतयोऽपि तथैव जलौधश्चित्ररसौ भवति द्रुमभेदात्। पात्रविशेषवशाच्च तथायं सर्वविदो ध्वनिराप बहुत्वम्॥ एकतयोऽपि यथा स्फटिकाश्मा यदयदुपाहितमस्य विभासम्। स्वच्छतया स्वयमप्यनुधत्ते विश्वबुधोऽपि तथाध्वनिरुच्चैः॥ देवकृतो ध्वनिरित्यसदेतद् देवगुणस्य तथा विहतिः स्यात्। साक्षर एव च वर्णसमूहान्नैव विनार्थ गतिर्जगति स्यात्॥ -- महापुराण २३/६९-७३ भगवान् के मुखरूपी कमल से बादलों की गर्जना का अनुकरण करने वाली दिव्यध्वनि निकल रही थी। यद्यपि वह एक प्रकार की थी तथापि सर्वभाषारूप परिणमन करती थी और लोगों का अज्ञान दूर कर उन्हें तत्त्वों का बोध करा रही थी। आगे आचार्य ने लिखा है कि कोई लोग ऐसा कहते हैं कि दिव्यध्वनि देवों के द्वारा की जाती है परन्तु ऐसा कहना मिथ्या है क्योंकि ऐसा कहने में भगवान् के गुण का घात होता है इसके सिवाय दिव्यध्वनि साक्षर होती है क्योंकि लोक में अक्षरों के समूह के बिना अर्थ का ज्ञान नहीं होता। चन्द्रप्रभकाव्य में दिव्यध्वनि के विषय में लिखा है सर्वभाषास्वभावेन ध्वनिनाथ जगदगुरुः। जगाद गणिनः प्रश्नादिति तत्त्व जिनेश्वरः॥ १६/४ जगत् के गुरु चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र ने गणधर के प्रश्न पर सर्वभाषा स्वभाव वाली दिव्यध्वनि के द्वारा तत्त्वों का उपदेश दिया। हरिवंशपुराण में भगवान् की दिव्यध्वनि को हृदय और कर्ण के लिए रसायन लिखा है, 'चेतः कर्ण रसायनं'। उन्होंने यह भी लिखा है जिनभाषाऽधरस्पदं मंतरेण विजूंभिता। तिर्यग्देव मनुष्याणां दृष्टिमोहमनीनशत्॥ १६/५ ओष्ठकम्पन के बिना उत्पन्न हुई जिनेन्द्र की भाषा ने तिर्यञ्च, देव तथा मनुष्यों की दृष्टि सम्बन्धी मोह को दूर किया था। दिव्यध्वनि के सम्बन्ध में जयधवला (पृ.1पृ. 126) में लिखा है-वह सर्वभाषामयी है, अक्षर-अनक्षरात्मक है, जिसमें अनन्त पदार्थ समाविष्ट हैं। (अनन्त पदार्थों
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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