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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016
जैन साहित्य के अध्ययन एवं अनुसन्धान का आरम्भ जैन हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज से प्रारम्भ होता है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में बम्बई के शिक्षा विभाग ने विभिन्न क्षेत्रों में दौरा करके निजी संग्रहालयों के हस्तलिखित ग्रन्थों का विवरण तैयार करने के लिए कुछ अन्य विद्वानों के साथ डॉ. जे. जी. बूलर को भी नियुक्त किया था। 1866 ई. में डॉ. बूलर ने बर्लिन (जर्मनी) पुस्तकालय के लिए पाँच सौ जैन ग्रन्थ खोजकर भेजे थे। उस समय संग्रह के रूप में क्रय किये गए तथा भण्डारकर शोध-संस्थान में सुरक्षित उन सभी हस्तलिखित ग्रन्थों के विवरण एवं आवश्यक जानकारी के रूप में 1837-98 ई. तक समय-समय पर भण्डारकर, डॉ. बूलर, कीलहार्न, पीटर्सन और अन्य विद्वानों की रिपोर्टें प्रकाशित हो चुकी हैं। प्राच्यविद्या जगत में यह एक नया आयाम था जिसने जैनधर्म एवं प्राकृत भाषा एवं साहित्य की ओर भारतीय एवं विदेशी विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया।
जैन विद्या एवं प्राकृत के महत्त्वपूर्ण अनुसन्धाता के रूप में उल्लेखनीय विद्वान् वेबर हैं। बम्बई के शिक्षा - विभाग से अनुमति प्राप्त कर डॉ. बूलर ने जिन पाँच सौ ग्रन्थों को बर्लिन पुस्तकालय में भेजा था, उनका अध्ययन व अनुशीलन कर वेबर ने कई वर्षों तक परिश्रम कर भारतीय साहित्य (Indischen Studien) (Indian Literature) के रूप में एक महान् ग्रन्थ 1882 ई. प्रस्तुत किया। यह ग्रन्थ सत्रह भागों में प्रकाशित है। यद्यपि ‘कल्पसूत्र' का अंग्रेजी अनुवाद 1848 ई. में स्टीवेन्सन द्वारा प्रकाशित हो चुका था, किन्तु जैन आगम ग्रन्थों की भाषा तथा साहित्य की ओर तब तक विदेशी विद्वानों का विशेष रूप से झुकाव नहीं हुआ था। वेबर ने इस साहित्य का विशेष महत्व प्रतिपादित कर 1858 ई. में धनेश्वरसूरिकृत 'शत्रुंजय माहात्म्य' का सम्पादन कर विस्तृत भूमिका सहित प्रथम बार उसे लिपजिंग (जर्मनी) से प्रकाशित कराया । श्वेताम्बर आगम ग्रंथ 'भगवतीसूत्र' पर जो शोध कार्य वेबर द्वारा किया गया, वह चिरस्मरणीय माना जाता है। यह ग्रंथ बर्लिन की विसेन्चाफेन (Wissenchaften) अकादमी से 1866-67 ई. में मुद्रित हुआ था। वेबर ने जैनों के धार्मिक साहित्य के विषय में विस्तार से लिखा था, जिसका