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________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 प्राकृत एवं अपभ्रंश-अध्ययन : एक विस्तृत विवेचन - डॉ. वन्दना मेहता जैनविद्या के अन्तर्गत प्राकृत एवं अपभ्रंश अध्ययन अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। कारण कि विशेषकर प्राकृत साथ ही अपभ्रंश का अधिकांश साहित्य जैन धर्म-दर्शन से सम्बन्धित है। प्राकृत अर्थात् स्वाभाविक भाषा, नैसर्गिक भाषा, वैसे ही अपभ्रंश का अर्थ है- जनबोली अर्थात् सामान्य लोगों की बोलचाल की भाषा। भरतमुनि के अनुसार अपभ्रंश बोलचाल की भाषा है जो उकार बहुला है। वह हिमाचल प्रदेश से लेकर सिन्ध तथा उत्तर पंजाब तक प्रचलित थी। हिमवत् सिन्धुसौवीरान् ये जनाः समुपाश्रिताः। उकारबहुला तज्ज्ञस्तेषु भाषां प्रयोजयेत्॥ (नाट्यशास्त्र,17.62) जहाँ एक और भाषा के क्रमिक विकास को समझने के लिए सामान्यतः यह कहा जाता है कि अपभ्रंश प्राकृतों की अन्तिम अवस्था है, किन्तु स्वरूप की दृष्टि से अपभ्रंश आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की वह पूर्ववर्ती अवस्था है जिसमें से समस्त आधुनिक आर्यभाषाएं अपनी स्थिति का विकास/निर्माण कर सकी। अपभ्रंश प्राकृत की विभाषाओं से विकसित मानी जा सकती है किन्तु यह कहना पूर्ण रूप से उपयुक्त नहीं है कि प्राकृत से अपभ्रंश का जन्म हुआ। प्रस्तुत संदर्भ में प्राकृत एवं अपभ्रंश के अध्ययन : एक विस्तृत विवेचन को समग्र रूप से प्रस्तुत किया जा रहा हैभारत एवं विदेशों में प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा के प्रमुख अध्येता और उनके अध्ययन के क्षेत्र - आधुनिक युग में प्राच्य-विद्याओं के क्षेत्र में प्राकृत, अपभ्रंश एवं
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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