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________________ 38 अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 उत्कृष्ट तक पहुँच जाता है। सामान्य ज्ञान से विशिष्ट ज्ञान और विशिष्ट ज्ञान से केवल ज्ञान तक पहुँच जाता है। निराश होने वाला और हाथ पर हाथ धरकर बैठा रहने वाला प्रमादी कभी आगे नहीं बढ़ पाता है। जैन दर्शन प्रतिपल अप्रमत्त और पुरुषार्थी रहने की शिक्षा देता है। आत्मा स्वयं जिम्मेदार : कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे को सखी या द:खी नहीं बना सकता है। अपनी उन्नति और अवनति के लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार है। समयसार में कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि वह दूसरों को सुखी या दु:खी बनाता है तो वह मूढ़ और अज्ञानी है - जो अप्पणा दु मण्णदि दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्ते त्ति। सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।२९ किसी को सुखी या दु:खी करने की यह जो अवधारणा है, यह मिथ्या धारणा है। जब तक ऐसी धारणी बनी रहती है तब तक व्यक्ति स्वयं पर भरोसा नहीं करता है। जब ऐसी मिथ्या धारणा मिटती है तो व्यक्ति अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में ले लेता है। आचारांग सूत्र में कहा गया है- पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसिहे मानव! तू स्वयं ही अपना मित्र है तू बाहर में क्यों किसी मित्र (सहायक) की खोज कर रहा है? उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि आत्मा ही अपना सच्चा मित्र है और आत्मा ही शत्रु है। हमारे अच्छे-बुरे के लिए दूसरा कोई जिम्मेदार नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार आत्मा अलग-अलग गतियों और योनियों में जाता है। इसमें किसी अन्य का दोष नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपने शुभाशुभ परिणाम से, अपने अध्यवसाय शुद्ध रखें, अपनी भावधारा और विचारधारा शुद्ध व पवित्र बनाए रखे। लेकिन आदमी व्यवहार में उलझ जाता है। वह स्वयं को देखने की बजाय दूसरों पर दोषारोपण करता है। जब व्यक्ति निमित्तों को देखता है तो वह दूसरों पर दोषारोपण करता है। जैनदर्शन कहता है, उपादान को देखो, वास्तविक कारण को जानो और समस्या का समाधान करो। दूसरों को मत देखो और दूसरों पर दोषारोपण भी मत करो। मूल और मुख्य उपादान हमारा अपना आत्मा है। यदि आत्मा को संभाल लिया जायेगा तो सब कुछ संभल जायेगा। इसी
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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