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________________ 37 अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 ही ज्ञान है, मेरा आत्मा ही दर्शन है, मेरा आत्मा ही चारित्र है, मेरा आत्मा ही प्रत्याख्यान तथा मेरा आत्मा ही संवर और योग है। इस प्रकार समयसार में आत्म-मीमांसा और आचार-मीमांसा का सुन्दर समन्वय किया गया है। पुरुषार्थ की प्रेरणा : आत्मकर्तृत्ववाद जैन दर्शन का महान सिद्धान्त है। समयसार इस सिद्धान्त को अधिक ऊँचाई देता है। आत्मकर्तत्ववाद से कर्मों की पराधीनता छटती है और आत्म-पुरुषार्थ जागत होता है। अपने आप पर भरोसा करना आत्म-पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ जगाने के लिए निश्चय नय का दृष्टिकोण बहत उपयोगी है। जब तक व्यक्ति अपनी शक्ति को नहीं जगाता है, तब तक दूसरा कोई उसकी सहायता नहीं करता है। जो अपने आप पर विश्वास नहीं करता है, उसके लिए देव, गुरु और धर्म का विश्वास भी फलदायी नहीं बन पाता है। विश्वास सबसे पहले अपने आप पर करना चाहिये। आत्मविश्वास और पुरुषार्थ से मोक्षमार्ग प्रशस्त होता है। जो आलसी, प्रमादी और अकर्मण्य है, उसकी कोई मदद नहीं करता है। अपने कर्तृत्व पर विश्वास करने वाला अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में थामे रखता है। समयसार में उपादान पर विशेष जोर दिया गया है। प्रथम क्रम पर उपादान और दुसरे क्रम पर निमित्त। प्रथम क्रम पर स्वयं का पुरुषार्थ और दूसरे क्रम पर दूसरों का सहारा। जो स्वयं पुरुषार्थी है, वही दूसरे के सहारे का उपयोग कर सकता है और लाभ उठा सकता है। केवल निमित्तों के भरोसे रहने से पुरुषार्थ का जागरण नहीं होता है। पुरुषार्थ को जगाने के लिए उपादान को देखना पडेगा। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार आचार्य कुन्दकुन्द ने 'जघन्य' शब्द के द्वारा एक बहुत बड़ी समस्या का समाधान किया है। वे कहते हैं कि ज्ञान का विकास, दर्शन का विकास और चारित्र का विकास एक छलांग में नहीं होता है, एक साथ नहीं होता है। एक साथ एक अल्पज्ञानी केवली नहीं बन सकता जाता है। एक साथ रागी व्यक्ति वीतरागी नहीं बन जाता है। व्यक्ति पुरुषार्थ करता हुआ क्रम से अपना विकास करता जाता है। वह जघन्य के मध्यम और मध्यम से
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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