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________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 81 सर्ववादानवसरं नानावादानुरोधि च । अनिन्तमूर्ति तद् ब्रह्म कूटस्थ चलमेव च। विरुद्धं सर्वधर्माणां आश्रयं युक्त्यगोचरम्। अर्थात् वह अनन्तमूर्ति ब्रह्म कूटस्थ भी है और चल (परिवर्तनशील) भी है, उसमें सभी वादों के लिए अवसर (स्थान) है, वह अनेक वादों का अनुरोधी है, सभी विरोधी धर्मों का आश्रय है और युक्ति से अगोचर है। यहाँ राजानुजाचार्य तो बाज ब्रह्म के सम्बन्ध में कह रहे हैं, प्रकारान्तर से अनेकान्तवादी जैनदर्शन तत्त्व के स्वरूप के सम्बन्ध में कहता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि न केवल वेदान्त में भी अपितु ब्राह्मण मान्य छहों दर्शनों के दार्शनिक चिन्तन में जो कालक्रम में विकसित हैं अनेकान्तवादी दृष्टि अनुस्यूत है। परम्परा श्रमण परम्परा का दार्शनिक चिंतन और अनेकान्त : भारतीय दार्शनिक चिन्तन में श्रमण परम्परा के दर्शन न केवल प्राचीन हैं, अपितु वैचारिक उदारता अर्थात् अनेकान्त के सम्पोषक भी रहे हैं। वस्तुतः भारतीय श्रमण परम्परा का अस्तित्त्व औपनिषदिक काल से भी प्राचीन है, उपनिषदों में श्रमणधारा और वैदिकधारा का समन्वय देखा जा सकता है। उपनिषदों के काल में दार्शनिक चिन्तन की विविध धाराएं बीज रूप में अस्तित्व में आ गई थीं, अतः उस युग के चिन्तकों के सामने मुख्य प्रश्न यह था कि इनके एकांगी दृष्टिकोणों का निराकरण कर इनमें समन्वय किस प्रकार स्थापित किया जाए। इस सम्बन्ध में हमारे समक्ष तीन विचारक आते हैं- संजय वेलट्ठीपुत्त, गौतमबुद्ध और वर्द्धमान महावीर | संजय वेलट्ठीपुत्त और अनेकान्त : संजय वेलट्ठीपुत्त बुद्ध के समकालीन छह तीर्थंकरों में एक थे । उन्हें अनेकान्तवाद का सम्पोषक इस अर्थ में माना जा सकता है कि वे एकान्तवादों का निरसन करते थे। उनके मन्तव्य का निर्देश बौद्धग्रंथों में इस रूप में पाया जाता है (1 ) है ? नहीं कहा जा सकता ।
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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