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________________ 18 अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, आहार भी जिम्मेवार रहता है।" अशुद्ध आहार से शारीरिक व मानसिक रोगों की उत्पत्ति होती है। 7 आहार शुद्ध तो स्वास्थ्य, अशुद्ध तो रोग! यह बात स्पष्ट है कि धर्म-साधना का मूल साधन शरीर की पूर्ण आरोग्यता से ही पुरुषार्थ-चतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष) की सिद्धि हो पाती है, अतः जीवन-लक्ष्य की सिद्धि के लिए सर्वप्रथम आहार-शुद्धि नितान्त आवश्यक है। हमारा मन हमारे द्वारा खाए गए अन्न का सार है। " जगप्रसिद्ध कहावत भी है- 'जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन' अर्थात् हमारा मन हमारे द्वारा ग्रहण किए जाने वाले आहार का परिणाम है। यह मन ही आधि, व्याधि व उपाधि रूप बन्धन का कारण है और परम पुरुषार्थ रूप मोक्ष (कैवल्य/मुक्ति) का भी । विषयासक्त मन बन्धन का और विषयों से रहित मन मुक्ति का कारण है। " 12 विषयों की आसक्तियों में से सबसे प्रबल आसक्ति रस की होती है । " रसासक्ति से छूटने का तरीका है- शुद्ध-आहारा का ग्रहण करना। जिसका सामान्य अर्थ है - हमेशा युक्त / सात्त्विक /प्राकृतिक/यौगिक आहार (हित, मित व ऋत आहार) का सेवना करना" तथा रहस्यात्मक अर्थ हैइन्द्रियों के रस से भी ऊँचे रस परमात्मा रूप महारस के पान में इन्द्रियों को सदा-सर्वदा लगा देना। इस प्रकार शुद्ध आहार के माध्यम से निरामय जीवन जीते हुए हम साधना से सिद्धि व मुक्ति तक का सफर आसानी से पूरा कर सकते हैं। शुद्ध आहार को अपनाकर हम पूरी मुस्तैदी के साथ जीवन को जी भरकर जीते हुए अभ्युदय (भौतिक उन्नति) व निःश्रेयस (आध्यात्मिक समृद्धि) दोनों को सिद्ध कर सकते हैं। यही कारण है कि हमारे पूर्वज ऋषियों ने योग-साधक को अपने जीवन में शुद्ध आहार अपनाने हेतु विशेष बल देने के लिए आह्वान किया है। समस्त आर्ष वाङ्मय में ही नहीं, अपितु अर्वाचीन साधनापरक साहित्य में भी यत्र-तत्र आहार और साधना का घनिष्ठ सम्बन्ध निरूपित है। वस्तुतः योग-साधना प्राण साधना है। प्राण को साधने के लिए प्राणायाम सर्वश्रेष्ठ तकनीक है क्योंकि इससे सहज ही तन-मन के विकार नष्ट हो जाते हैं, रजोगुण और तमोगुण की प्रवृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं। 2016
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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