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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016
जैनधर्म एवं आयुर्वेद विशेषांक का पूरक शोधालेख -
आहार शुद्धि एवं पथ्यापथ्य वानस्पतिक
द्रव्यों का आयुर्वेदानुसार महत्त्व
- आचार्य महेशानन्द विद्यालंकार, रमिता महर्जन
एवं आचार्य बालकृष्ण
साधना की सिद्धि अर्थात् जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मनशुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। मन के शोधन का एक उपाय हैआहार-शुद्धि। आहार-शुद्धि से तात्पर्य है- राजसिक व तामसिक आहार को छोड़कर सात्त्विक आहार अर्थात् हिताहारा, मिताहार व ऋताहार को अपनाना। गुण, प्रकृति, संस्कार, संयोग, देश, काल, पात्र, भावना, उद्देश्य आदि हिताहार के विविध पहलू हैं। योग से सम्बद्ध शास्त्रों में विविध वानस्पतिक द्रव्यों में से आयुर्वेदिक गुणों की दृष्टि से पथ्यापथ्य विभिन्न द्रव्यों का नामोल्लेख है। उन शास्त्रों में निर्दिष्ट पथ्य व अपथ्य उन द्रव्यों की सही पहचान एवं तद्विषयक सम्यक् जानकारी व समझ योगाभ्यासी को होनी चाहिए। इसके अभाव में योगाभ्यासी के मन का शोधन (शुद्धि) नहीं हो पाता। इसी को दृष्टिगत रखते हुए हम विविध योग-परम्पराओं से सम्बद्ध संस्कृत, पालि व प्राकृत आदि भाषाओं में लिपिबद्ध ग्रन्थों के आधार पर कुछ शास्त्रोक्त पथ्यापथ्य आहारीय वानस्पतिक द्रव्यों को ढूँढकरउनका स-सन्दर्भ आयुर्वेदोक्त परिचय लोककल्याणार्थ इस शोधपत्र के द्वारा प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्राणिमात्र की उत्पत्ति एवं वृद्धि आहार से होती है।' अर्थात् व्यक्ति का समग्र विकास उसके आहार पर निर्भर करता है। आहार से तात्पर्य सामान्य अर्थ में भोजन (भक्ष्य. चष्य. लेह्य और पेय) से तथा व्यापक अर्थ में इन्द्रियों के विषय से है। आहार से रस, रक्तादि सप्त ध तुओं का पोषण ही नहीं होता, बल्कि व्यक्ति का विचार भी बनता है। योग से सम्बद्ध शास्त्र में बताया गया है कि आरोग्य व रोग दोनों के लिए